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दो बहनें

वेदना यदि कहीं हो भी तो उसकी भाषा नीरद की जानी हुई नहीं है। कह नहीं पाता इसीलिये कहने की इच्छा को वह दोष देता है। अपने विचलित चित्त को गूँगा रखकर ही वह जो लौट आता है इसीको अपनी शक्ति का परिचय समझकर गर्व करता है। कहता है, 'सेन्टिमेन्टैलिटी की ओर जाना हमारा कर्तव्य नहीं है।' ऊर्मि को उस दिन रोने की इच्छा होती है किन्तु उसकी भी दशा ऐसी है कि वह भी भक्तिपूर्वक समझती है, इसीको वीरत्व कहते हैं। अपने दुर्बल मन को निष्ठुर भाव से चोट पहुँचाती रहती है। वह जितनी भी कोशिश क्यों न करे बीच-बीच में यह बात उसे साफ़ झलक जाती है कि एक दिन प्रबल शोक के कारण जो कठिन कर्तव्य उसने अपनी इच्छा से ग्रहण किया था, समय पाकर जब वही इच्छा दुर्बल हो आई है तो उसने दूसरे की इच्छा को ही कसकर पकड़ लिया है।

नीरद उससे साफ़-साफ ही कहता, "देखो ऊर्मि, साधारण स्त्रियाँ पुरुषों से जिस प्रकार की खुशामदें पीने की आशा रखती हैं, मुझसे उन्हें पाने की कोई सम्भावना नहीं है, यह जान रखो। मैं तुम्हें जो दूँगा वह इन गढ़ी हुई बातों की अपेक्षा सत्य होगा, बहुत मूल्यवान् होगा।"

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