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दो बहनें

बोल उठा--"नहीं जाता नेपाल!" दृढ़ प्रतिज्ञा को, "हम दोनों ऊर्मि को लेकर कलकत्ते में ही रहेंगे--भृकुटि-कुटिल समाज को क्रूर दृष्टि के सामने ही! और इसी कलकत्ते में रहकर फिर से टूटे रोज़गार को नये सिरे से गढ़कर खड़ा कर दूँगा।"

कौन-से सामान ले जाने होंगे और कोन-से छोड़ जाने होंगे, शर्मिला इसीका एक तख़मीना बना रही थी कि आवाज़ सुनाई पड़ी--"शर्मिला, शर्मिला!" जल्दी-जल्दी खाता फेंककर पति के कमरे में दौड़ी। अकस्मात् अनिष्ट की आशंका करके कांपते हृदय से पूछा--"क्या हुआ?"

शशांक बोला--"नहीं जाता नेपाल। परवा नहीं मुझे समाज की। यहीं रहूँगा!"

शर्मिला ने पूछा--"क्यों, क्या हुआ?"

शशांक ने कहा--"काम है।"

वही पुरानी बात! काम है! शर्मिला का वक्षःस्थल थरथर काँप उठा। "शर्मि, यह न समझना कि मैं कापुरुष हूँ। जिम्मेवारी छोड़कर मैं भागूँगा! इतने अधःपतन की भी तुम कल्पना कर सकती हो?"

शर्मिला ने पास जाकर उसका हाथ पकड़ा, बोली,

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