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दो बहनें

"माफ़ करो दीदी, मुझे माफ़ करो" कहकर ऊर्मि फिर दीदी के पैरों पर माथा रगड़ने लगी।

शर्मिला आँखों के आँसू पोंछकर क्लान्त स्वर में कहने लगी, "कौन किसे माफ़ करेगा बहन? संसार बड़ा जटिल है। जो सोचती हूँ वह होता नहीं, जिसके लिये प्राणों की बाज़ी लगा देती हूँ, वही खिसक पड़ता है।"

ऊर्मि दीदी को छोड़कर अब क्षण भर के लिये भी हिलना नहीं चाहती। दवा देना, नहलाना-खिलाना-सुलाना सब छोटी-मोटी बातें वह स्वयं करने लगी। फिर से पढ़ना शुरू किया। सो भी दीदी के पास बैठकर। ख़ुद पर अब उसका विश्वास नहीं रह गया था, शशांक पर भी नहीं।

नतीजा यह हुआ कि शशांक बार-बार रोगिणी के कमरे में आने लगा। पुरुष की अन्धतावश ही वह वह समझ नहीं सका कि उसकी छटपटाहट का तात्पर्य स्त्री को मालूम हो जाता है। ऊर्मि मारे शर्म के गड़ जाती। शशांक आता है मोहनबागान के फ़ुटबाल का प्रलोभन लेकर: व्यर्थ होता है। पेंसिल से चिहित अख़बार में चार्ली चैपलिन का विज्ञापन दिखाता है: कोई नतीजा

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