देव और विहारी को चाँदनी में छिपाने के लिये उसके अंगों में घनसार-मिश्रित सफेद चंदन का लेप करा देता है। सेतता की वृद्धि के साथ-साथ उद्दीपन का भी प्रबंध हो जाता है । गोरे शरीर पर इस श्वेत लेप के बाद दुग्ध-फेन के सदृश श्वेत साड़ी उढ़ा दी जाती है। पर क्या नायिका नायक के पास विना भूपणों के जायगी ? नहीं । गहने मौजूद हैं, पर सभी स्वच्छ सफेद मोतियों के, जिससे चाँदनी में वे भी छिप जायेंगे । हाँ, नायिका के केश-कलाप को छिपाने के लिये उन्हें सफ़ेद फूलों से अवश्य ही संवारना पड़ा है । इस प्रकार सजकर मंद-मंद मुसकराती हुई, उज्ज्वलता को और बढ़ाती हुई, अभिसारिका जा रही है । चाँदनी में बिलकुल मिल गई है । मुख- चंद्र के उजियाले में अपनी छाया भी उसने छिपा ली है। परवर्ती कवि भी अभिसार का प्रबंध करता है । अपनी सफाई दिखलाने के लिये वर्णन में उलट-फेर भी कर देता है, पर मुख्य भाव पूर्ववर्ती कवि का ही रहता है । शब्द करनेवाले आभूषणों का या तो त्याग कर दिया जाता है या उनकी शब्द-गति रोकी जाती है। किंसुक के फूलों से भी कानों की सजावट की जाती है। श्वेत कपड़ों का व्यव- हार तो किया ही जाता है। इस प्रकार सुसजित होकर जब अभि- सारिका गमन करती है, तो उसकी मुख-प्रभा से शरीर की छाया भी छिप जाती है। पद्मिनी होने के कारण नायिका के पीछे भ्रमर भी लगे हुए हैं। परवर्ती कवि ने पूर्ववर्ती कवि का भाव तो लिया, परंतु वर्णन की उत्तमता में किसी भी प्रकार पूर्ववर्ती से आगे नहीं निकल सका। आगे निकलना तो दूर की बात है, यदि बराबर रहता, तो भी गनीमत थी-पर यह भी न हो सका । कातिक की रजनी (शरद् ऋतु) में उसने वसंत के किसुक से नायिका का श्रृंगार करा दिया, मानो स्वयं काल-विरुद्ध-दूषण को अपना लिया। नायिका
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