भाव-सादृश्य रहा है । अतएव दूसरा पूर्ववर्ती कवि के भाव का सौंदर्य-रक्षक और तीसरा सौंदर्य-सुधारक है । इन दोनों को ही "भाव- चोर" के दोष में अभियुक्त नहीं किया जा सकता। जहँ बिलोकि मृग-सावक-नैनी, जनु तह बरष कमल-सित-सैनी । तीखी दिन चारिक ते सीखी चितवनि प्यारी, "देव' कहै भरि हग देखत जितै-जितै, श्राछी उनमील, नील, सुभग सरोजन की, तरल तनाइयत तोरन तिते-तितै । उपर्युक्त दोनों कविताओं के रचयिताओं में पहले का कर्ता पूर्व- वर्ती तथा दूसरे का परवर्ती है । एक विद्वान् समालोचक की राय है कि परवर्ती कवि ने पूर्ववर्ती कवि का भाव लेकर केवल उसका स्पष्टीकरण कर दिया है तथा ऐसा काम करने के कारण वह चोर है। आइए, पाठकगण, इस बात पर विचार करें कि समालोचक महोदय का यह कथन कहाँ तक माननीय है। क्या परवर्ती कवि का वर्णन पूर्ववर्ती कवि के वर्णन से शिथिल है ? कहीं भी तो नहीं, यही क्यों, पूर्ववर्ती कवि की सित( असित )-संबंधी विसंधि भी दूसरे कवि के वर्णन में नहीं है । तो क्या वह पूर्ववर्ती कवि के वर्णन के बराबर है ? इसका निर्णय हम सहृदय पाठकों पर ही छोड़ते हैं। हाँ, हमें जो बातें परवर्ती कवि के वर्णन में चमत्कारिणी समझ पड़ती हैं, उनका उल्लेख किए देते हैं । असित कमलों की वर्षा से विकसित, नील कमलों के तरल तोरण के तनने में विशेष चमत्कार है। सित को असित मानने में यों ही कुछ कष्ट है, फिर असित से 'नील' स्पष्ट और भावपूर्ण भी है । पंचशायक के पंचबाणों में
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