देव आर विहारी उस प्रेम का वर्णन करना चाहिए, वह मेरी कलम से नहीं निकल रही है । तथापि शुद्ध हृदयवाले पाठक उस भाषा को अपने-श्राप सोच लेंगे। "जहाँ दंपति में मैं इतने निर्मल प्रेम को संभवनीय मानता हूँ, वहाँ सत्याग्रह क्या नहीं कर सकता । यह सत्याग्रह वह वस्तु नहीं है, जो आज कल सत्याग्रह के नाम से पुकारी जाती है । पार्वती ने शंकर के मुकाबले में सत्याग्रह किया था अर्थात् हजारों वर्ष तक तपस्या की । रामचंद्र ने भरत की बात न मानी, तो वे नंदिग्राम में जाकर बैठ गए। राम भी सत्य-पथ पर थे और भरत भी सत्य- पथ पर थे। दोनों ने अपना-अपना प्रण रक्खा । भरत पादुका लेकर उसकी पूजा करते हुए योगारूढ़ हुए। राम की तपश्चर्या में बिहार के प्रानंद की संभावना थी । भरत की तपश्चर्या अलौकिक थी। राम को भरत को भूल जाने का अवसर था । भरत तो पल- पल राम-नाम उच्चारण करता था। इससे ईश्वर-दासानुदास हुना।" कविता में श्रादर्श-वाद'का जो विवादउठाया गया है,वह भी स्वकीया के प्रेम के आगे फीका है । इस विषय पर हम कुछ अधिक विस्तार के साथ लिखना चाहते हैं, पर और कभी लिखेंगे । यहाँ पर इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि स्वकीयाओं के प्रेम में शरा- बोर जो कविताएँ उपलब्ध हैं, वे 'कवित्व' के लिये अपेक्षित सभी गुणों से परिपूर्ण हैं। कदाचित श्रृंगारी कविता पर आधुनिक आदर्श- वादियों का एक यह भी अभियोग है कि वे दुश्चरित्रता की जननी होती हैं । इस अभियोग में सत्यता का कुछ अंश अवश्य है पर इसके साथ ही अनेक ऐसे वर्णन भी इस श्रेणी में गिन लिए गए हैं, जो इस अभियोग से सर्वथा मुक्त है। बात यह है कि शृंगार- रस से परिपूर्ण किसी भी ऐसे वर्णन को, जिसमें बात कुछ खुलकर कही गई हो, ये लोग दुश्चरित्रता-जनक मान बैठे हैं। ऐसे लोगों
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