पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/६१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

देव और विहारी दोनों का आकार एक ही प्रकार का होता है । उनके शरीर की गठन, डैनों का विस्तार, चोंच की सूरत, पैरों के बीच का जाल, गर्दन, मुख, आँखें तथा पक्ष-समूह सभी में साम्य है। केवल परों के रंग में भेद है । चक्रवाक का रंग लाल-कत्थई होता है। इस एक भेद को छोड़कर श्राकार और रूप में चक्रवाक और हंस समान ही होते हैं। यदि सफेद रंग का हंस उसी रंग में रंग दिया जाय, जो चक्र- वाक का होता है, तो फिर दोनों में कोई भेद नहीं रह जाता । तब यह जानना कठिन होगा कि कौन चक्रवाक है और कौन हंस । देखिए, 'कर्पूर-मंजरी -सहक में राजा हंसी को कुंकुम से रँगकर बेचारे हंस को कैसा धोका देता है । हंस अपनी हंसी को कुंकुम से रंगी पाकर उसे चक्रवाकी समझता है, और उसके निकट नहीं जाता- "हसि कुड्कुमपङ्कपिञ्जरतणु काऊण जं वञ्चिदो , तब्भत्ता किल चक्कवाअघरिणी एसत्ति मण्णन्तो; एद तं मह दुकिदं परिणद दुक्खाण सिक्खावण , एकत्थो विणजासि जैणविस दिट्ठीतिहाअस्सवि।" (कर्पूर-मंजरी, जवनिकान्तरम् २, श्लोक ८) तात्पर्य यह कि रूप और आकार में दोनों पक्षी एक ही-से हैं। इनकी खाद्य सामग्री और उड़ने का ढंग भी एक ही-सा है। जाड़े की ऋतु में दोनों ही पक्षी भारतवर्ष में बहुत बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। कवियों और वैज्ञानिकों का इस बात में एकमत है कि जाड़ा इन्हें बहुत प्रिय है, और शरद्-ऋतु में ये जलाशयों की शोभा बढ़ाते हैं । विहंग-विद्याविशारदों ने नैटेटोरीज़-विभाग के अंतर्गत एक उपभेद हंसों का रक्खा है और एक उपभेद चक्र- ,वाकों का। सितेतर हंसों को धार्तराष्ट्र कहते हैं । महाभारत के आदि-पर्व का ६६वाँ अध्याय देखने से मालूम होता है कि हंस, 'कलहंस और चक्रवाक की उत्पत्ति धृतराष्ट्री (सितेतर हंसी) से है-