देव और विहारी [घ] विहारी के समान हिंदी के अनेकानेक और कवियों ने चमत्कारपूर्ण दोहे लिखे हैं । भाष्यकार का यह कथन हम मानते हैं कि “जैसे अनु- पम दोहे सतसई में पाए जाते हैं, वैसे अन्यत्र प्रायः कम पाए जाते हैं।" तो भी यह बात असत्य है कि "विहारी के अनुकरण में किसी को कहीं भी सफलता नहीं हुई। सफलता तो एक ओर, कहीं-कहीं तो किसी- किसी ने बे-तरह ठोकर खाई है, अर्थ का अनर्थ हो गया है (पृष्ठ १२६)।" जिस नीति का अवलंबन भाष्यकार ने अपनी समग्र पुस्तक में लिया है, उसी का अनुगमन करते हुए उन्होंने रसनिधि, विक्रम एवं रामसहाय के दोहों से विहारी के दोहों की तुलना की है और इस प्रकार विहारी श्रेष्ठ ठहराए गए हैं। मतिराम, वैरीसाल, तुलसीदास, रहीम एवं रसलीन के शत-शत अनुपम दोहे उपस्थित रहते हुए भी उनका कहीं उल्लेख नहीं किया गया है । विषयांतर होने से इस विषय पर भी हम यहाँ विशेष कुछ लिखना नहीं चाहते। केवल उदाहरण- स्वरूप कुछ दोहे उद्धत करते हैं, जिसमें पाठक-गण हमारे कथन की सत्यता का निश्चय कर सकें । कविवर मतिराम के अनेकानेक दोहे निश्चयपूर्वक सतसई के दोहों की टक्कर के हैं । रसनिधि और विक्रम के दोहे विहारीलाल के दोही के सामने वैसे ही निष्प्रभ हैं, जैसे उनकी उनि के सामने सुंदर और तोष की उनियाँ हैं। इनके साथ तुलना करना विहारी के साथ अन्याय करना है- (१) कहा दवागिनि के पिए ? कहा धरे गिरि धीर ? रिहानल मैं जरत ब्रज, बूड़त लोचन-नीर । मतिराम (२) जहि सिरीष कोमल कुसुम लियो सुरस सुख-मूल , क्यों अलि-मन तूसे रहै चूसे रूसे-फूल । भूपति
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