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भूमिका
साधु, सुधी, सुरभी सब "केशव" भाजि गई भ्रम भूरि भजावे । सज्जन- संग- बछेरू डरैं बिडरें वृषभादि प्रवेश न पावै ; द्वार बड़े अघ-बाघ बँधे, उर- मंदिर बालगोबिद न आवै । केशव तो लौ या मन-सदन मैं हरि श्राबैं केहि बाट, विकट जड़े जौ लौं निपट खुलहि न कपट-कपाट ? विहारी ( २ ) ( क ) "केशोदास" मृगन-बछेरू चूमै बाघिनीन, चाटत सुराम बाघ-बालक बदन हैं। सिंहन की सटा ऐचैं कलम-करनि करि, सिंहन को आसन गयद को रदन है। फणी के फणन पर नाचत मुदित मोर, क्रोध न बिरोध जहाँ मदन मद न है; बानर फिरत डोरे-डोरे अंध तापसानि, शिव को समाज, कैयौं ऋाषे को सदन है ? (ख ) काहू के क्रोध-बिरोध न देखो ; राम को राज तपोमय लेखो । केशव कहलाने एकत बसत अहि, मयूर, मृग, बाघ ; जगत तपोमय सो कियो दरिघ दाघ-निदाघ । विहारी (३) ( क ) रूप अनूप रुचिर रस भीनि पातुर नैनन की पुतरीनि ।