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५४ | देव और बिहारी |
देव और विहारी इस दोहे से सतसई एवं विहारीलाल का गौरव है। भाष्यकार ने भी इसकी प्रशंसा में सब कुछ कहा है; पर यह भाव भी सूर-प्रतिभा से बचकर नहीं निकल सका है। देखिए---
चितई चपल नयन की कोर; मनमथ-बान दुसह, अनियार निकस फूटि हिये वहि ओर, अति व्याकुल धुकि,घरनि परे जिामे तरुन तमाल पवन के जोरः कहुँ मुरली, कहुँ लकुट मनोहर, कहुँ पट, कहूं चंद्रिका-मोर। छन बूड़त, छन ही छन उछरत बिरह-सिंधु के परे झकोर; प्रेम-सलिल भाज्यो पीरी पट फट्यो निचोरत अँचरा-छोर। फुरै न बचन, नयन नहिं उघरत, मानहु कमल भए बिन भोर; "सूर" सु-अधर-सुधारस सींचहु, मेटहु मुरछा नदकिसोर। सूरदास
जिन्हें यह देखना हो कि सूरदास का शृंगारी कवियों में भी कौन-सा स्थान है वे कृपा करके एक बार मनोयोगपूर्वक सूरसागर पढ़ें। देखिए, सूरदास का निम्नलिखित वर्णन कितना अनूठा है ? क्या ऐसी कविता सतसई में सर्वत्र सहज सुलभ है। खंडिता के ऐसे अनूठे वचन हिंदी-साहित्य-सूर्य सूरदास के अतिरिक्त और कौन कह सकता है-
आए कहँ रमारमन ? ठाढ़ मवन काज कवन ? करौ गवन वाके भवन, जामिनि जहँ जागे । भृकुटी भई अधोभाग, पल-पल पर पलक लाग, चाहत कछु नैन सैन मैन-प्रीति-पागे । चंदन-बंदन ललाट, चूरि-चिह्न चार ठाठ, अंजन-रजित कपोल, पीक-लीक लागे । उर-उरोज-नख सासे लौ, कुकुम कर-कमल भरे, भुज तटंक-अक उभय अमित दुति बिमागे ।