द्वितीय संस्करण की भूमिका माधरी' में एक वैज्ञानिक लेख प्रकाशित कराया था, वह भी परिशिष्ट में दे दिया गया है । आशा है, जो नए परिवर्तन किए गए हैं वे पाठकों को रुचिकर होंगे। ऊपर जिन परिवर्तनों का उल्लेख किया गया है उनसे इस पुस्तक का कलेवर बढा है । इधर हमारे पास देव और विहारी की तुलना के लिये और बहुत-सा सामान एकत्रित हो गया है । हमारा विचार है कि हम देव और विहारी के विचारों का पूर्ण विश्लेषण करके उस पर विस्तार के साथ लिखें तथैव रेवरेंड ई० ग्रीब्ज़-जैसे विद्वानों के ऐसे कथनों पर भी विचार करें जिनमें वे इन दोनों कवियों को कवि तक मानना स्वीकार नहीं करते, पर इस काम के लिये स्थान अधिक चाहिए और समय भी पर्याप्त । यदि ईश्वर ने चाहा तो हमारा यह संकल्प भी शीघ्र ही पूरा होगा। ___ अंत में हम देव-विहारी के इस द्वितीय संस्करण को प्रेमी पाठकों के करकमलों में नितांत नम्रता के साथ रखते हैं और आशा प्रकरते हैं कि पहले संस्करण की भाँति वे इसे भी अपनाएंगे और हमारी त्रुटियों को क्षमा करेंगे। लखनऊ विनयावनत- ३० एप्रिल, १९२५ कृष्णविहारी मिश्र
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