४६. देव और विहारी नारेन हूँ सों भई नदियाँ , नदियाँ नद है गए काटि कगारे । बेगि चलौ, तौ चलौ ब्रज को “कबि तोष" कहै- ब्रजराज-दुलारे, वै नद चाहत सिंधु भए, अब नाहीं तौ है हैं जलाहल भारे । तोष भक्ति से प्रेरित अनेक सुकवियों ने गंगा-प्रभाव से मुनि-प्राप्ति में जो सरलता होती है, उसका तथैव विरोधियों को जो दुर्दशा होती है, उसका भी विशद वर्णन किया है । पद्माकरजी कहते लाय भूमि-लोक मै जसूस जबरई जाय , जाहिर जबर करी पापिन के मित्र की ; कहै “पदुमाकर" बिलोकि यम कहो-कै बिचारौ तौ करम-गति ऐसे अपवित्र की ! जौलौं लगे कागद बिचारन कछुक तौलौं, ताके कान परी धुनि गगा के चरित्र की; वाके सीस ही तैं ऐसी गंग-धार बही, जामें बही-बही फिरी बही चित्र नौ गुपित्र की । इसी भाव पर हमारे पूज्य पितामह स्वर्गवासी लेखराजजी ने यों कहा है- कोऊ एक पापी, धूत मरो, ताहि जमदूत __लाए बाँधि, मजबूत फाँसी ताके गल मैं ; तैसे ही उड़ाय, गंग न्हाय, कढ़ो काग, आय परन सों ताके रेनु-कन गिरी तल मैं
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