(१)(क) विरह-कथन करते समय तत्संबंधी अक्षरों में भी इतनी उष्णता भरी रहने का भय है कि सखी को विरह-वर्णन करने की हिम्मत नहीं पड़ती। उसको डर लगता है कि मुँह से ऐसे तत्ते अक्षर निकलने से मेरी जिह्वा कहीं जल न जाय, जो मैं फिर बोलने के काम की भी लेखे न तिहारे, देखि ऊबत परेखे मन, उनकी जो देह-दशा थोरीहुँ-सी कहिए । आखर गरम बरै लागै स्वास-बायु कहूँ, जाम जरि जाय, फेरि बोलिबे ते हिए । रघुनाथ (ख) नायिका अपनी विरहावस्था लिखना चाहती है, पर बेचारी लिखे कैसे ? देखिए- बिरह-बिथा की बात लिख्यो जब चाहै, तब ऐसी दसा होति आँच आखर मो भरि जाय; हरि जाय चेत चित, सूखि स्याही झरि जाय, बरि जाय कागद, कलम-डंक जरि जाय । रघुनाथ (२) नेत्रांबु प्रवाह से सर्वत्र जल व्याप्त हो रहा है। अतिश- योक्ति की पराकाष्ठा है- कैसे पनिघट जाउँ सखीरी ? डोलौं सरिता-तीर ; भरि-भरि जमुना उमड़ि चली है इन नैनन के नीर । इन नैनन के नीर सखीरी, सेज भई घर नाउँ ; 'चाहति हौं याही पै चढ़ि कै स्याम मिलन को जाउँ । गोपिन को पनारे असुवान को बहे, बहिकै नीर- भए नारे;
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भूमिका