(१) देखियत चहुँ दिसि ते घन घोरे । मानहुँ मत्त मदन के हस्ती बल करि बंधन तोरे ; स्याम सुभग तन, चुवत गल्ल मद बरषत थोरे-थोरे । तब उहि समय पानि ऐरावत ब्रजपात सों कर जोरे ; अब सुनि सूरस्याम के हरि बिनु गरत जात जिमि औरे । सूरदास (२) धन बमंड, नम गरजत घोरा, प्रिया-हीन डरपत मन मोरा । तुलसी (३) प्रिया समीप न थी, तो क्या; हंसों को देखकर उसकी गति, चंद्रमा को देखकर उसके मुख, खंजन-पक्षी को देखकर उसके नेत्रों और प्रफुल्ल कमल को देखकर उसके पैरों के अनुरूपक तो मिल जाया करते थे। इतना ही अवलंब क्या कम था? पर इस वर्षा में तो इन सबके दर्शन भी दुर्लभ हो गए। न अब हंस ही हैं और न मेघावृत अंबर में चंद्रदेव ही के दर्शन होते हैं। खंजन का भी प्रभाव है और कमल क्षीण पड़ गए हैं। नहीं जान पड़ता, किसका अवलंब लेकर प्राणों की रक्षा हो सकेगी- कल हंस, कलानिधि, खंजन कंज कळू दिन "केशव" देखि जिये ; गति, आनन, लोचन, पायन के अनुरूपक-से मन मानि हिये । यहि काल कराल ते सोधि सबै, हठ के बरषा-मिस दूरि किये। अब धौं बिन प्रान प्रिया राहिहै, कहि कौन हितू अवलंबाह ये ? केशव
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भूमिका