तुलनात्मक समालोचना
आइए पाठक, अब आप तुलनात्मक समालोचना के बारे में भी हमारा वक्तव्य सुन लीजिए । इस ग्रंथ में हमने देव और विहारी पर तुलनात्मक समालोचना लिखी है। इसीलिये इस विषय पर भी कुछ लिखना हम आवश्यक समझते हैं।
कविता विशेष के गुण समझने के लिये उसमें आए हुए काव्यो- स्कर्ष की परीक्षा करनी पड़ती है। यह परीक्षा कई प्रकार से की जा सकती है-जाँच के अनेक ढंग हैं । कभी उसी कविता को सब ओर से उलट-पलटकर देख लेने में ही पर्याप्त आनंद मिल जाता है- कविता के यथार्थ जौहर खुल जाते हैं ; पर कभी इतना श्रम पर्याप्त नहीं होला । ऐसी दशा में अन्य कवियों की उसी प्रकार की, उन्हीं भावों को अभिव्यक्त करनेवाली सूक्तियों से पद्य विशेष का मुकाबला करना पड़ता है । इस मुकाबले में विशेषता और हीनता स्पष्ट झलक जाती है। यही क्यों, ऐसी अनेक नई बातें भी मालूम होती हैं, जो अकेले एक पद्य के देखने से ध्यान में भी नहीं पाती। जरा-सा फळ कवि की मर्मज्ञता की गवाही देने लगता है। उदा- हरण के लिये महाकवि विहारीलाल का निम्नलिखित दोहा लीजिए-
लाज-लगाम न मानहीं, नैना मो बस नाहिं । ये मुंहजोर तुरंग-लौं ऐचतह चलि जाहि ।
मतिरामजी ने इस दोहे को इसी रूप में अपनाया है। केवल ज़रा-सा हेर-फेर कर दिया है । देखिए-
मानत लाज-लगाम नहि, नेक न गहत मरोर; होत लाल लखि, बाल के दृग-तुरंग मुँहजोर ।
विहारीलाल के दोहे में 'लों' (समान) वाचक-पद पाया है।
- किंतु अब यह निश्चित नहीं है कि मतिराम का दोहा पहले बना
या विहारी का।