३६ | देव और बिहारी |
किसी प्रसिद्ध लेखक या कवि को आदर्श-स्वरूप मान लेता है और अपने उसी आदर्श से समालोचना करता है । ऐसी दशा में यदि आदर्श कवि या लेखक के विपरीत कुछ भी भाव हुए, तो नवीन लेखक के ऊपर उसे क्रोध आ जाता है और फिर लेखक की वास्तविक योग्यता का विचार होने से रह जाता है । भूषण को वीर-रस के तथा विहारी या देव को श्रृंगार रस के वर्णन में आदर्श-स्वरूप मानकर समालोचना होते समय किसी नवीन लेखक को न्याय की कभी आशा नहीं रखनी चाहिए । इसी प्रकार प्राचीन काल के प्रसिद्ध कवियों में से किसी के कवि-कौशल विशेष का लक्ष्य करके समालोचना करने से वास्तविक निर्णय नहीं हो सकता । जैसे इतिहास-संबंधी सच्ची घटनाओं के वर्णन, जातीय जागृति कराने के उद्योग, वीर रस-संचार करने की शक्ति प्रादि बातों का लक्ष्य रखने से समालोचक को भूषण, चंद आदि के आगे और सब फीके देख पड़ेंगे,वैसे ही धार्मिक विचारों की प्रौढ़ता, निष्कपट भक्ति-मार्ग-प्रदर्शन,अपूर्व शांति-सागर के हिलोरों आदि का लक्ष्य रखने से तुलसी,सूर आदि ही, उसकी राय में, सर्वोच्च पदों पर जा विराजेंगे। पुनःयौवनोचितोपभोगादिक, मूर्ति-चित्रण-चातुरी, निष्कपट तथा शुद्ध प्रेमोद्घाटन, शृंगार-रसाप्तावित काव्य का लक्ष्य रखने से केशव,देव आदि ही बड़े-बड़े श्रासनों को सुशोभित करने में समर्थ होंगे। भिन्न-भिन्न रस-निरूपण करने में एक-दूसरा किसी से कम नहीं है। यदि तुलसी और सूर शांत में अग्रगण्य हैं, तो देव और विहारी शृंगार-शिरोमणि हैं। वैसे ही वीरोचित प्रबंधोपकथन में भूषण और चंद ही प्रधान हैं । शांत में आनंद पानेवाला तुलसी को, शृंगार-वाला देव को और वीरवाला भूषण को श्रेष्ठ मानेगा । इस प्रकार भिन्न-भिन्न रुचि के अनुकूल भिन्न-भिन्न कवि श्रेष्ठ हैं । इसका निर्णय करना कि इनमें क्रमानुसार कौन श्रेष्ठ है, बहुत ही कठिन है । ऐसे