परिशिष्ट ३०६ हैं। सर्वसाधारण लोग जिस प्रकार संसार को देखते है, देवजी ने भी अपना 'जगदर्शन उससे अलग नहीं होने दिया है- हाय दई : याह काल के ख्याल में फूल-से फूलि सबै कुभिलाने; या जग-बीच बचे नहिं मीच पै, जे उपजे, ते मही में मिलाने । 'देव' अदेव, बली बल-हीन, चल गए मोह की हौस-हिलान; रूप-कुरूप, गुनी-निगुनी, जे जहाँ उपजे, ते तहाँ ही बिलाने । देवजी की निर्मल दृष्टि प्रेम-प्रभाकर के सुखद प्रकाश में जितनी प्रभावमयी दिखलाई पड़ती है, उतनी अन्यत्र नहीं। उनके प्रेम- संबंधी अनेक वर्णन हिंदी-साहित्य में अपना जोड़ नहीं रखते। देवजी के विषय में बहुत कुछ लिखने और कहने की हमारी इच्छा है। उसके लिये हम प्रयत्नशील भी हैं । परंतु कभी-कभी हमारी ठीक वही दशा होती है, जो देवजी ने अपने एक छंद में दिखाई है । हम कहना तो बहुत कुछ चाहते हैं, परंतु कहते कुछ भी नहीं बन पड़ता-जो हो, देवजी के उसी छंद को देकर अब हम अपने इस लेख को समाप्त करते हैं। 'देव' जिए जब पूछौ, तो पार को पार कहू लहि आवत नाही; सो सब झूठमते मत के, बरु मौन, सोऊ सहि आवत नाही। कै नद-संग-तरंगनि मैं, मन फेन भयो, गहि श्रावत नाही : चाहै कह्यो बहुतेरो कछू, पं कहा कहिए ? कहि श्रावत नाहीं। ६-चक्रवाक हंस, चक्रवाक, गरुड़ इत्यादि अनेक पक्षियों के नाम तो हम बहुत दिनों से सुनते चले आते हैं, परंतु इनको आँस्त्रों से देखने अथवा इनके विषय में कुछ ज्ञान प्राप्त करने की जरूरत नहीं सम- झते । हमारी धारणा है कि जब पुराने ग्रंथों में इन पक्षियों के नाम आए हैं, तब वे कहीं-न-कहीं होंगे ही ! और, यदि न भी हुए, तो इससे हमारा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। ऐसी ही धारणा
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