भूमिका | ३३ |
यदि समालोचक अपने विचार प्रकट करने में कुछ डरता-सा दीख पड़ता है, तो साधारण जन-समुदाय भी विना विवाद किए उस पर विश्वास करना पसंद नहीं करता । समालोचना को लोग आज कल बहुधा इसीलिये पढ़ते हैं कि वाद-विवाद-संबंधी कोई नई बात जाने । इस कारण समालोचना में ऐसी बात, जिसमें स्पष्ट रूप से अनुमति नहीं दी गई है, पसंद नहीं की जा सकती। आश्चर्यप्रद, चित्त फड़का देनेवाली बातों ही से चित्त पर विशेष प्रभाव पड़ता है-इन्हीं में बड़ा मज़ा आता है और इसी कारण समालोचना में ऐसी ही बातों का आधिक्य दिखलाई पड़ता है।
समालोचना की उन्नति विशेष करके इसी शताब्दी में हुई है। प्रत्येक वस्तु का प्रारंभ में क्रम से विकास होता है । तदनुसार हमारी समालोचनाओं में भी अभी अभीष्ट उन्नति नहीं हुई है। आज कल की कुछ समालोचनाओं में तो पुस्तक का संक्षेप में उल्लेखमात्र कर दिया जाता है-"ग्रंथ बहुत विद्वत्ता या गवेषणापूर्वक लिखा गया है", "यह पुस्तक शिक्षाप्रद है, इसमें इन-इन विषयों का वर्णन है" आदि । इसके अतिरिक्त कुछ वाक्य भी उद्धृत कर दिए जाते हैं।
परंतु अब सरसरी तौर से अनुकूल या विरुद्ध सम्मति दे देने से काम न चलेगा--अब हमको केवल इस बात ही के जानने की आवश्यकता नहीं है कि यह ग्रंथ उत्तम है या विद्वत्ता पूर्ण । हमें तो अब उस ग्रंथ के विषय का पूर्ण विवरण चाहिए । इन सब बातों का सम्यक् उल्लेख होना चाहिए कि किन कारणों से वह ग्रंथ उत्तम कहा गया । ग्रंथकर्ता को लेखकों या कवियों में कौन-सा स्थान मिलना चाहिए। उस विषय के जो अन्य लेखक हों, उनके साथ मिलान करके दिखलाना चाहिए कि उनसे यह किस बात में उच्च या न्यून है और और ग्रंथों की अपेक्षा इस प्रकार के ग्रंथों का विशेष आदर होना चाहिए या नहीं। यदि होना चाहिए, तो किन