परिशिष्ट फिर तो संसार के सभी प्राणियों में उसी सच्चिदानंद के दर्शन होते हैं । उसी की माया से प्रेरित सृष्टि और प्रलय के खेल समझ में आ जाते हैं। यह बात चित्त में जम जाती है कि भोक्ता और भक्ष्य वही है, निर्गुण और सगुण भी वही है। मूर्ख और पंडित सभी में वह विराजमान है । अस्त्र-शस्त्र में भी वही है। उनके चलानेवालों में भी वही है । उनके प्राघात से जिनकी मृत्यु होती है, उनमें भी वही है। जो धन के मद से उन्मत्त, तोंदवाले सेठ पालकी पर चढ़े-चढ़े घूम रहे हैं, उनमें भी वही है और उसी पालकी को ढोनेवाले बेचारे कहारों में भी उसी का वास है । कैसा विमल विज्ञान है ! वेदांत के सिद्धांत का कैसा संक्षिप्त निदर्शन है ! अग, नग, नाग, नर, किन्नर, असुर, सुर , प्रेत, पसु, पच्छी, कीट कोटिन कढ़या फिरै ; माया-गुन-तत्त्व उपजत, बिनपत सत्त्व, ___ काल की कला को ख्याल खाल में मढ़यो फिरै । आप ही भखत मख, आप ही अलख लख , _'देव' कहूँ मूद, कहूँ पंडित पढ़यो फिरै ; आप ही हथ्यार, श्राप मारत, मरत आप , आप ही कहार, आप पालकी चढ़या फिरें। ऊपर जिस प्रकार के ज्ञान का उल्लेख किया गया है, उसका विकास होने के पश्चात् ईश्वर-संबंधी द्वैत-भाव न रह जाना चाहिए। उसी अवस्था के लिये देवजी कहते हैं- तेरो घर घेरो आठौ जाम रहैं श्राठी सिद्धि , नवौ निधि तेरे बिधि लिखियै ललाट है। 'देव' सुख-साज महाराजान को राज तुही , सुमति सु सो ये तेरी कीरति के भाट हैं :
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