देव और विहारी साथ तुम्हारे जूठे बेर खा रहे हैं। ऐसे भक्त-वत्सल भगवान् के रहते भक्षों का कौन बाल बाँका कर सकता है । देखो न, चीर- हरण के समय पांचाली की लज्जा किस प्रकार बाल-बाल बच गई ! धाए फिरी बज मै, बधाए नित नंदजू के, मोपिन सघाए नचौ गोपन की सीर में : "देव" मति मूढ़े तुम्हें हूँदै कहाँ पावै, चढ़े- पारध के रथ, पैठे जमुना के नीर मै । आँकुस है दौरि हरनाकुस को फारचो उर, साथी न पुकारयो, हत हाथी हिय तीर मैं ; बिदुर की भाजी, बेर मीलनी के खाय, विप्र-चाउर चबाय, दुरे द्रौपदी के चीर में । साकारोपासना के ऐसे उज्ज्वल चित्र खींचनेवाले देवजी नास्तिकों के तर्क से भी अपरिचित न थे। उन्हें मालूम था, नास्तिक लोग वेद, पुराण, नरक, स्वर्ग, पाप, पुण्य, तप और दान इत्यादि कुछ नहीं मानते । उनके एक छंद में नास्तिकता के विचारों का समावेश इस प्रकार हुआ है- को तप के सुरराज भयो, जमराज को बंधव कोने खुलाया ? मेरु मही मैं सही करिकै, गथ ढेर कुबेर को कौने तुलायो ? ' पाप न-पुन्य, न नर्क न स्वर्ग, मरो सु मरो, फिरि कौने बुलायो ? झूठ ही बेद-पुरानन बाँचि लबारन लाग भले के भुलायो । एक दूसरे छंद में पुण्य के विश्वास से नास्तिक ने दान की खब ही निंदा की है। इसी छंद में, मृतक-श्रा के संबंध में, जो विचार प्रकट किए गए हैं, वे आज कल के हमारे आर्यसमाजी भाइयों के विचारों से भली भाँति मिल जाते हैं- मूढ़ कहै-मरिकै फिरि पाइए, ह्या जु लुटाइए भोन-भर को; सो खल खोय खिस्यात खरे, अवतार सुन्यो कहूँ बार-परे को !
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