पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८९

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परिशिष्ट प्रचलित होने के कारण कानों को अच्छा नहीं लगता । 'बस्थाय गई प्रयोग तो बहुत ही खटकनेवाला है । भाषा का कोई चमत्कार-पूर्ण महाविरा छंद में नहीं है। प्रसाद गुण स्वल्प तथा माधुर्य अति स्वल्प है। अनुप्रास का चमत्कार देव के छंद से बिलकुल कम है। __अब भाव को लीजिए । हम संस्कृत-साहित्य से बहुत कम परिचित हैं। हिंदी-साहित्य-सागर भी हमें दुस्तर है। फिर भी जहाँ तक हमारी पहुँच है, देव ने जो भाव प्रकट किया है, वह उनका है या उन्होंने उसे ऐसा अपनाया है कि अब तो वह उन्हीं का हो रहा है। उधर केशव ने निशा को जो 'प्रेत की नारि' बनाया है, वह भाव वाग्भट्टालंकार में स्पष्ट दिया है- कीर्णान्धकारालकशालमाना निबद्धतारास्थिमाणः कुतोऽपि निशा पिशाची व्यचरद्दधाना महन्त्युलूकध्वनिफेकतानि । कहा गया है, 'कोदिनि-सी कुकरे कर-कंजनि' कहकर केशव ने अपनी प्रकृति-निरीक्षण-पटता का परिचय दिया है, यह ठीक है। किंतु क्या कोदिन का कथन चित्त में बीभत्स रस का संचार नहीं करता और क्या विप्रलंभ-श्रृंगार के साथ बाभत्स-रस के भावों का ऐसा स्पर्श विशेष शोभनीय है ? काव्यांगों की दृष्टि से देव के संपूर्ण छंद में स्वभावोक्ति का प्राधान्य है। दूसरे पद में एक अच्छी उत्प्रेक्षा है । चतुर्थ पद में उत्कृष्ट अनुमानालंकार है तथा तृतीय में लोकोक्ति और पर्या- योक्ति की थोड़ी-सी झलक । विप्रलंभ-शृंगार तो दोनों छंदों में है ही । केशव के छंद में दो बार उपमा (प्रेत का नारि-ज्यों, कोढ़िनि-सा) की तथा कर-कंजनि में रूपक की झलक है। तारे निकल चुके । कमल मुंद गए । यह सब हो चुकने के बाद भी अंत को निशा का 'रोता मुख' कहा गया है । कितु शायद कुछ