२९६ देव और बिहारी वा चकई को भयो चित-चीतो, चितौत चहूँ दिसि चाय सो नाची, है गई छीन छपाकर की छबि, जामिनि-जोति मनी जम जाँची । बोलत बैरी बिहंगम "देव", सँजोगिनि की भई संपति काँची ; लोहू पियो जु बियोगिनि का, सु किया मुख लाल पिसाचिनि-प्राची । दोनों छंदों में पाठकगण देख सकते हैं कि जो कुछ सादृश्य है. वह 'प्रेत की नारि' और 'पिसाचिनी' का है । केशव ने निशि को 'प्रेत की नारि' माना है और देव ने प्राची , को 'पिसाचिनी'। केशव का वर्णन रात्रि का है और देव का प्रभात का । अतएव दोनों कवियों के भावों को सदश कहना ठीक नहीं है। परंत केशव- भक्त विज्ञ समालोचकों ने इन वर्णनों को सदृश मानकर इन पर विचार किया है, इसलिये हम भी इन छंदों द्वारा देव और केशव की कविता के संबंध में अपने विचार प्रकट करेंगे। पहले दोनों छंदों की भाषा पर विचार कीजिए । देव के छंद में मीलित वर्ण दो बार आया है-प्राची का 'प्रा' और है । स्वर्ग का सर्वथा अभाव है। भाषा अनुप्रास के चमत्कार से परि- पूर्ण है । उसमें स्वाभाविक पद्य-प्रवाह, प्रसाद-गुण एवं श्रुति- माधुर्य का समागम है । 'चित-चीतो भयो', 'चाय सो नाची' तथा 'भई संपति काँची-सहश महाविरों को भी स्थान मिला है। पक्षी के 'विहंगम' शब्द का प्रयोग विदग्धता-पूर्ण है ।छंद में जिस भय का दर्शन है, वह 'बिहंगम' में भी पाया जाता है। 'संयोगियों की संपत्ति' शब्दावली में संपत्ति' शब्द मार्के का है। केशव के छंद में प्रेत की 'प्रे', ज्यो, बरयाय की 'स्या', बहुस्यो की 'स्यो' ये चार मीलित वर्ण रेफवाले हैं। चढ़ाय, कोढ़िनि और भेटत में टवर्ग भी तीन बार व्यवहृत हुआ है। 'चहुँधातो' और 'सुख साको प्रयोग अच्छे नहीं । 'कुकरे' शब्द प्रांतीय अथवा कमा
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