पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८४

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२१२ देव और विहारी अपहत सामग्री की उपयोगिता में कोई विशेष चमत्कार नहीं पैदा किया है । रामचंद्रिका को ही लीजिए। इसमें कई अंक-के-अंक प्रसन्नराघव नाटक के अनुवादमात्र हैं । अनुवाद करना कोई बुरी बात नहीं; पर उपालंभ यह है कि यह कोरा अनुवाद है, केशवदास ने भावों को अपनाया नहीं है। इस कथन के समर्थन में दो-चार उदाहरण लीजिए- अझैरङ्गीकृता यत्र षड्भिः सप्तभिरष्टभिः । त्रयी च राज्यं लक्ष्मीश्च योगविद्या च दीव्यति । जयदेव अंग छ-सातक-आठक सो भव तीनिहुँ लोक मैं सिद्धि भई है। , बेदत्रयी अरु राजसिरी परिपूरनता सुभ योगमई है। केशव यः काश्चनमिवात्मानं निक्षिप्याग्नौ तपोमये; वर्णोत्कर्ष गतः सोऽयं विश्वामित्रो मुनीश्वरः । जयदेव. जिन अपनो तन-स्वर्ण मेलि तपोमय अग्नि मैं, कीन्हों उत्तम ।वर्ण, तेई विश्वामित्र ये| TAITHI Aman FIYAamle Caprime RETOUR देव ने इस प्रकार का अनुवाद-कार्य बहुत कम किया है। आचार्यत्व-प्रदर्शक ग्रंथों में भी उन्होंने अपने मानसिक बल का 'परिचय देते हुए अपना नवीन मत अथवा प्रणाली अवश्य निर्धा- रित की है। उनके मस्तिष्क में मौलिकता के बाज थे और उन्होंने समय-समय पर अपने विचार-क्षेत्र में उनका वपन भी किया है। एक संस्कृत-कवि का भाव लेकर उन्होंने उसे कैसा अपनाया है इसे देखिए-