परिशिष्ट पर 'बले' लिखा है। इन सब बातों पर विचार करके हम देव की भाषा केशव की भाषा से अच्छी मानते हैं। मौलिकता केशव और देव की कविता के प्रधान विषय वही हैं, जो देववाणी संस्कृत की कविता में पाए जाते हैं । इन भावों से लाभान्वित होने का दोनों ही कवियों को समान अवसर था। फिर भी केशवदास ने ही संस्कृत-साहित्य से विशेष लाभ उठाया है। इसके कारण भी हैं । केशव ने जिस समय कविता करनी प्रारंभ की थी, उस समय हिंदी में कोई बड़े कवि और प्राचार्य नहीं थे, और केशवदास स्वयं संस्कृत के धुरंधर विद्वान् थे और उनके घर में कई पुश्त से बड़े- बड़े पंडित होते आए थे। इसलिये केशवदास ने स्वयं संस्कृत- साहित्य का आश्रय लेकर इस मार्ग को प्रशस्त किया। देव ने जिस समय कविता आरंभ की, तो उसको अपने पूर्ववर्ती सूर, तुलसी, केशव और विहारी-जैसेसुकवि प्राप्त थे एवं केशव, मतिराम तथा भूषण-जैसे प्राचार्यों के ग्रंथ भी सुलभ थे। कदाचित् केशव के समान वह संस्कृत के अगाध साहित्य-सागर के पारदर्शी न थे। तो भी वह बड़े उत्कृष्ट कवि थे और अँगरेजी के एक विद्वान् समालोचक की यह राय उन पर बिलकुल ठीक उतरती है कि जब कभी कोई बड़ा लेखक अपने पूर्ववर्ती के भावों को लेता है, तो उन्हें बढ़ा देता है । केशवदास के मुख्य ग्रंथ रसिकामिया, कविप्रिया और.रामचंद्रिका, हैं। इन तीनों ही ग्रंथों में आचार्यत्व तथा कवित्व दोनों ही दृष्टियों, से केशवदास ने अपने अगाध पांडित्य का परिचय दिया है। कवि- प्रिया को पढ़कर लाखों कवि हो गए हैं और रामचंद्रिका के पाठ ने जगत् का बहुत बड़ा उपकार किया है। परंतु यह सब होते हुए भी केशवदास ने संस्कृत साहित्य से जो सामग्री एकत्र की है, उसमें उन्होंने अपनी कोई विशेष छाप नहीं बिठाली है। उन्होंने
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।