२६६ देव और विहारी देवजी अपने समय के अद्वितीय कवि थे। उनमें स्वाभाविक प्रतिभा थी और इसी के बल पर उन्होंने सोलह वर्ष की अवस्था में भावविलास बना डाला था। उनका आदर उनके समय में ही होने लगा था और इधर सं० १६०० के बाद से तो उनकी कविता पर लोगों की रुचि विशेष रूप से प्राकृष्ट हो रही है। देवजी की भाषा उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। भाषा की दृष्टि से हिंदी के किसी भी कवि से उनका स्थान नीचा नहीं है। इनकी कविता में रस का प्राधान्य है। सभी प्रकार के प्रेम का इन्होंने सजीव और सच्चा वर्णन किया है। इनकी कविता पर इनके पूर्ववर्ती कवियों का भी प्रभाव पड़ा है। इधर इनके परवर्ती कवियों ने इनके भावों को अपनाया है। हिंदी-भाषा के कवियों-पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों की कविता का इनकी कविता से ओत-प्रोत संबंध है। यदि हिंदी-कविता-संसार से देवजी निकाल डाले जाय, तो उसमें बड़ी भारी न्यूनता पा जाय। जिस शीघ्रता के साथ इस समय हिंदी-संसार देवजी का आदर कर रहा है, उसे देखते जान पड़ता है कि उनको शीघ्र ही हिंदी-संसार में उचित स्थान प्रास होगा । एवमस्तु । ४--देव और केशव परिचय देवजी देवशर्मा (चौसरिया या दुसरिहा ) ब्राह्मण थे, जो अपने को कान्यकुब्ज बतलाते हैं। केशवजी सनाढ्य ब्राह्मण थे । इन्होंने अपने वंश का जो विवरण दिया है, उससे जान पड़ता है कि इनके पिता काशीनाथ और पितामह कृष्णदत्त संस्कृत के प्रकांड पंडित थे । केशवदास के जीवन-काल का विशेष संबंध बुंदेलखंड से रहा है। देवजी का जन्म इटावा में हुआ था। सुनते हैं, उनके वंशज ग्राम कुसमरा, तहसील शिकोहाबाद, जिला मैनपुरी में
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