परिशिष्ट हम यह बात यों ही नहीं कह रहे हैं बरन् हमारे पास ये पंक्तियाँ संगृहीत भी हैं। एक उदाहरण लीजिए- ढराकि ढार ढरि ढिंग भई ढीठ ढिठाई आइ । इस पंक्ति में १८ अक्षर हैं, जिनमें से आठ टवर्ग के हैं। श्रुति- मधुर भाषा के लिये टवर्ग का अधिक प्रयोग घातक है। दोहा छंद में अधिक शब्दों की गुंजाइश न होने के कारण विहारीलाल को असमर्थ शब्दों से अधिक काम लेना पड़ा है- “लोपे कोपे इद्र लो, रोपे प्रलय अकाल" इस पंक्ति में 'लो' का अर्थ 'पूजालो' का है, परंतु अकेला 'लोपे' इस अर्थ को प्रकट करने में असमर्थ है। • विहारीलाल की सतसई में बुंदेलखंडी, राजपूतानी एवं अन्य प्रांतीय भाषाओं के शब्द अधिक व्यवहृत हुए हैं । देवजी की कविता में ऐसे शब्दों का औसत कम है। इसी प्रकार तोड़े-मरोड़े, अप्रचलित शब्द भी विहारी ने ही अधिक व्यवहृत किए हैं। अशिष्ट ( Slang ) एवं ग्राम्य शब्दों का जमघट भी औसत से विहारी की कविता में अधिक है। दोहे से घनाक्षरी अथवा संवया प्रायः तीनगुना बड़ा है । यदि देवजी के प्राप्त ग्रंथों में प्रत्येक ग्रंथ में औसत से १२५ छंदों का होना माना जाय, तो २५ ग्रंथों में ३१२५ छंद मिलेंगे। इन छंदों में से सर्वया और बनाक्षरी छाँट लेने तथा बार-बार आ जानेवाले छंदों को भी निकाल डालने के पश्चात् प्रायः २५०० घनाक्षरी और सवैया रह जाते हैं। सो स्पष्ट ही विहारी से देव की काव्य रचना कम-से-कम दसगुनी अधिक है । अतएव यदि देव की कविता में विहारीलाल की कविता से भाषा- संबंधी अनौचित्य दसगुने अधिक निकलें, तो भी उनकी भाषा विहारी की भाषा से बुरी नहीं ठहर सकती । पर पूर्ण परीक्षा करने पर विहारी की कविता में ही भाषा-संबंधी अनौचित्यों का औसत अधिक
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