२६८ देव और विहारी इसके बाद दृष्टिकोण बदल गया । श्रागे से यह मत स्थिर हुआ कि कला के नियम कवितागत भाव के पथप्रदर्शकमात्र हैं, भाव को बाँध रखने के अधिकारी नहीं । हिंदी-भाषा के कवियों में कवि-कुल-कलश केशवदासजी प्राचीन अलंकार-प्रधान प्रणाली के कवि थे, तथा देवजी उसके बाद की प्रणाली के । इसके अनुसार भाव ही सर्वस्व है । इसे विकसित करने के लिये भाव-सागर में रसावेग की ऐसी उत्तुंग तरंगें उठती हैं कि थोड़ी देर के लिये सब कुछ उसी में अंतर्लीन हो जाता है । जो हो, देवजी रस-प्रधान कवि थे। 'देवजी का संदेशा प्रेम का संदेशा है । इस प्रेम में उषाकाल की प्रभा का प्रभाव हे। दो आत्माओं का प्रास्मनिलय होकर एक हो जाना आदर्श है, दूसरे के लिये सर्वस्व ल्यागने में आनंद है एवं स्वार्थ का अभाव इसकी विजय है । यह सुंदर, सत्य, सर्वव्यापी एवं कभी न नाश होनेवाला है । इसी की बदौलत देवजी mar Rasi "श्रीचक अगाध सिंधु स्याही को उमँगि आयो, तामैं तीनों लोक लीन भए एक संग में; कारे-कारे पाखर लिखे जु कोरे कागद, सुन्यारे करि बाँचै कौन, जाँचै चित-मंग में। आँखिन मैं तिमिर अमावस की रैन-जिमि जंबू-रस-बुंद जमुना-जल-तरंग में; यों ही मेरो मन मेरे काम को रह्यो न माई, स्याम रंग है करि समान्यो स्याम रंग में।" जिस समय देवजी ने काव्य-रचना प्रारंभ की, उस समय उर्दू-साहित्य-गगन के उज्ज्वल नक्षत्र, रेखता के पथ-प्रदर्शक और औरंगाबाद-निवासी शायर वली की धूम थी। मराठी-साहित्य-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।