भूमिका भारतवर्ष में समालोचना की प्रथा बहुत प्राचीन काल से चली अाती है, यहाँ तक कि ("शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गरो- रपि)यह नीति-वाक्य भारतवासियों को साधारण-सा जंचता है। संस्कृत-पुस्तकों की अनेकानेक टीकाएं ऐसी है, जिन्हें यदि उन पुस्तकों को समालोचनाएँ कहें, तो कुछ अनुचित नहीं है । आज कल महाकवियों के काव्यों में छिद्रान्वेषण-संबंधी जो लेख निकलते हैं, वे प्रायः इन्हीं टीकाकारों के 'निरंकुशाः कवयः,' 'कवि-प्रमाद' आदि के आधार पर हैं। जिस समय भारतवर्ष में छापे का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था और न आज कल के ऐसे समाचार-पत्रों ही का प्रचार था, उस समय किसी पुस्तक का प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेना बहुत कठिन कार्य था । निदान यदि एक प्रांत में एक पुस्तक का प्रचार होता था, तो दूसरे में दूसरी का । ग्रंथ विशेष का पूर्णतया प्रचार हो, उसमें लोगों की श्रद्धा-भक्ति बढ़े, इस अभिप्राय से उस समय प्रचलित नाना ग्रंथों के माहात्म्य बन गए। रामायण-माहात्म्य, भागवत-माहात्म्य श्रादि पुस्तकों को पढकर भला रामायण और भागवत पढ़ने की किसे इच्छा न होती होगी ? ऐसी अवस्था में यदि इन्हें हम प्रशंसात्मक समालोचनाएँ मानें, तो कुछ अनुचित नहीं जान पड़ता। संभव है, इसी प्रकार निंदा-विषयक भी अनेका- नेक पुस्तकें बनी हों और जिन ग्रंथों का प्रचार रोकने का उनका श्राशय रहा हो, उनके नष्ट हो जाने पर वे, विशेष उपयोगी न रहने के कारण, प्रचलित न रही हों । जो हो, हमारे पूर्वजों के ग्रंथों में उनकी सत्यवादिता स्पष्ट झलकती है-ऐसा जान पड़ता है कि वे लोग समालोचना-संबंधी लाभों से भली भाँति परिचित थे । श्रीपतिजी ने केशव जैसे महाकवि के काव्य में निर्भीक होकर दोष दिखलाने में केवल अपना पांडित्य ही प्रदर्शित नहीं किया, बरन् अंधपरंपरानुसरण करनेवाले अनेक लोगों को वैसी ही
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