२६६ देव और विहारी अधिक संभावना यही समझ पड़ती है कि साक्षात्कार दक्षिण देश में हो कहीं पर हुअा होगा । इसी समय छत्रपति शिवाजी के पुत्र शंभाजी का वध हुआ था । कदाचित् आज़मशाह-जैसा आश्रयदाता पाकर देवजी को फिर दूसरे आश्रयदाता की आवश्यकता न पड़ती, परंतु विधि-गति बड़ी विचित्र होती है। संवत् १७५१ के लगभग ओरंगजेब की सुदृष्टि मोअज्जमशाह की और फिरी और श्राज़मशाह का प्रभाव कम होने लगा। अब से वह दिल्ली से दूर गुजरात-प्रांत के शासक नियत हुए । संवत् १७६४ में औरंगज़ेब की मृत्य हुई और उसी साल श्राज़मशाह और मोअज्जमशाह में दिल्ली के सिंहासन के लिये घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में प्राज़मशाह मारे गए। इसके बाद दिल्ली के सिंहासन पर वह पुरुष पासीन हुआ, जो आज़मशाह का प्रकट शत्रु था। ऐसी दशा में देवजी का संबंध दिल्ली-दरबार से अवश्य ही छूट गया होगा। श्राज़मशाह के अतिरिक्त भवानीदत्त वैश्य, कुशलसिंह, राजा उद्योतसिंह, राजा भोगीलाल एवं अकबरअलीखी द्वारा देवजी का समाहत होना इस बात से सिद्ध होता है कि उन्होंने इन सजनों के लिये एक-एक ग्रंथ निर्माण किया है । खेद है, देवजी ने इन लोगों का भी विस्तृत वर्णन नहीं दिया । सुना जाता है, इन्होंने भरतपुर-नरेश की प्रशंसा में भी कुछ छंद बनाए हैं। वह कृष्णचंद्र के अनन्य उपासक थे। उनके ग्रंथों के देखने से जाग पड़ता है कि वह वेदांत और आत्मतत्व से भी अवगत थे। देवजी ने. उत्तम भाषा में प्रेम का संदेशा दिया है। हिंदी-कवियों में उन्होंने ही सबसे पहले यह मत दृढ़तापूर्वक प्रकट किया कि गार-रस सब रसों में श्रेष्ठ है। उनकी कविता शृंगार-रस- प्रधान है । वह संगीतवेत्ता भी अच्छे थे। उनके विषय में जो
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