परिशिष्ट २६४ इनके पिता का नाम क्या था तथा वह जीविका-उपार्जन के लिये किस ज्यवसाय के प्राश्रित थे । देवजी का पूरा नाम देवदत्त प्रसिद्ध है। बाल्यावस्था में देवजी की शिक्षा का क्या क्रम रहा, उनके विद्यागुरु कौन-से महानुभाव थे, ये सब बातें नहीं मालूम, पर यह बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि यह बड़े ही कुशाग्रबुद्धि एवं प्रतिभावान बालक थे । इनके बुद्धि-चमत्कार की प्रशंसा दूर-दूर तक फैल गई थी और इतनी थोड़ी उम्न में ही देवजी में इस देवी विभूति का दर्शन करके लोग कहने लगे थे कि इनको सरस्वती सिद्ध है। जिस समय देवजी के प्रतिभा-प्रभाकर की किरणें चारों ओर प्रकाश फैला रहा थीं, उस समय दिल्ली के सिंहासन पर विश्व- विख्यात औरंगजेब विराजमान था । इसके तीसरे पुत्र आज़मशाह , की अवस्था इस समय प्रायः ३६ वर्ष की थी। प्राज़मशाह बड़ा। ही गुणज्ञ, शूर और विद्या-व्यसनी था । वह गुणियों का समुचित . आदर करता था । जिस समय की बात कही जा रही है, उस समय औरंगजेब की उस पर विशेष कृपा थी। उसका बड़ा भाई मोअज्जमशाह एक प्रकार से नज़रबंद था। धीरे-धीरे आज़मशाह ने भी बाल-कवि देव को प्रतिभा का वृत्तांत सुना । उन्होंने देव को देखने की इच्छा प्रकट की। शीघ्र ही देवजी का और उनका साक्षा- स्कार हुआ और षोड़श वर्ष में पैर रखनेवाले बाल-कवि देव ने उन्ह अपना रचित 'भाव-विलास' एवं 'अष्टयाम' पढ़कर सुनाया। आज़म- शाह इन ग्रंथों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने देव- जी की कविता की परम सराहना की। यह बात सं० १७४६ की है। देव और आज़मशाह का साक्षात्कार दिल्ली में हुश्रा या दक्षिण में, यह बात ठीक तौर से नहीं कही जा सकती । आज़मशाह उस समय अपने पिता के साथ शाही लश्कर में था और दक्षिण देश में यु-संचालन के काम में अपने पिता का सहायक था, इसलिये
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