२६३ परिशिष्ट होता है कि नायिका का दुःख भी वैसा ही बना हुआ है-न उसमें कमी हुई है, न वृद्धि । उधर मुख और भोले की उपमा से दुःख-वृद्धि का भाव बहुत अधिक दृढ़ हो जाता है। जैसे गलने के कारण और धूलि-धूपरित होने से अोला प्रतिक्षण पहले की अपेक्षा छोटा और मलिन दिखलाई पड़ता है, वैसे ही नायिका का मुख भी वर्धमान दुःख के कारण एवं अश्रुओं के साथ कज्जल आदि के बह आने से अधिक विवर्ण और म्लान होता जाता है। छंद में यही भाव दिखलाया गया है। प्रोले और मुख की उपमा एकदेशीय है। शब्द-रसायन में एकदेशीयोपमा के उदाहरण में ही यह छंद दिया गया है । इस- लिये यह प्रश्न उठता ही नहीं कि भोला पूरा गल जायगा, पर नायिका का मुख न गलेगा। 'आँसू भरि-भरि दरि' इस अधूरे वाक्य को लिखकर कवि ने अपनी वर्णन-कला-चातुरी का अच्छा परिचय दिया है।दुःखा- धिक्य दिखलाने का यह अच्छा दंग है। ओले की उपमा या तो उसके उज्ज्वल वर्ण को लेकर दी जाती है, या उसके जल्दी-जल्दी गलनेवाले गुण का आश्रय लेकर । सरस्वतीजी को जब हम तुषार-हार- धवला कहते हैं, तो हमारा लक्ष्य तुषार की उज्ज्वलता पर ही रहता है। अंगों के क्षीण होने के वर्णन में श्रोले की उपमा का आश्रय प्राचीन कवियों ने भी लिया है । ऐसी दशा में ओले और मुख की
- १. कौशिक गरत तुषार-ज्यों तकि तेज तिया को। तुलसी
२. रथ पहिचानि, बिकल लाखि घोरे गरहिं गात जिमि आतप ओरे।- तुलसी ३. अब मुनि सूरस्याम के हरि बिनु गरत गात जिमि ओरे।-सूर ४. आगि-सी मँवाति है जू, ओरो-सी बिलाति है जू।-आलम ५. ओरती-से नैना आँगु श्रोरो-सो ओरातु है। -बालम ६. या कुन्देन्दुतुषारहारधवला इत्यादि-