२६० देव और विहारी पछताना और कुछ भी अच्छा न लगना भी ऐसे ही भाव हैं। इनको एक प्रकार से अनुभाव मान सकते हैं। आँसुओं का ढलना तन-संचारी है । अतः यहाँ शृंगार-रस के चारों अंग पूर्ण हुए, सो प्रकाश-शृंगार-रस पूर्ण है । पहले संयोग था, परंतु पीछे से वियोग हो गया, जिसकी प्रबलता रहने से छंद में संयोगांतर्गत वियोग- शृंगार है । बहिरंगा सखी के सम्मुख नायक ने कुछ हंसकर गात छुश्रा, जिससे हास्य-रस का प्रादुर्भाव छंद में होता है, परंतु दृढ़ता- पूर्वक नहीं । शृंगार का हास्य मित्र है, सो उसका कुछ पाना अच्छा है। थोड़ा हँसकर गात छूने और मुसकराकर उठ जाने से मृदु हास्य पाया है, जिसका स्वरूप उत्तम है, मध्यम अथवा अधम नहीं। भंगार में क्रोध का वर्णन अप्रयुक्त नहीं है। यहाँ मुग्धा कनहांतरिता नायिका है । पात्र-भेद में यह वाचक- पात्र है, जिसकी शुद्धस्वभावा स्वकीया श्राधार है । सखी का वर्णन स्वकीया के साथ होता है और दूती का परकीया के साथ । कुछ ही गात के छूने से क्रोध करना भी स्वकीयत्व प्रकट करता है और रात-भर रोना-धोना स्थिर रहने से उसी की अंग-पुष्टि वाचक-पान होने से छंद में अभिधा का प्राधान्य है, जिसका भाव लक्षणा के रहते हुए भी सबल है। यहाँ अर्थातर संक्रमित वाच्य ध्वनि निकलती है, क्योंकि कलहांतर्गत पश्चात्ताप की विशेषता है, जिससे चित्र का यह भाव प्रकट होता है कि क्रोध का न होना ही रुचिकर था । नायिका मुग्धत्व-पूर्ण स्वभाव से क्रोध करने पर विवश हुई । रसकी इच्छा नायक के मनाने की है, परंतु लज्जा के कारण वह ऐसा कर नहीं सकती । वाचक से जाति, यदृच्छा, गुण तथा क्रिया-नामक चार मूल होते हैं । यहाँ उसका जाति- मूल है। नायिका स्वभाव से ही गात के छुए जाने से क्रोधित
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