२५८ देव और विहारी रंगा सखी के सम्मुख गात छुपा गया था, वह चली गई थी। वचन दूसरी बहिरंगा से कहा गया है, जो वह हाल नहीं जानती है। केवल अंतरंगा सखी के सम्मुख यदि गात छुपा गया होता, तो नायिका को संकोच न लगता; क्योंकि अंतरंगा सखी को प्राचार्यों ने सभी भेदों की जाननेवाली माना है, जिसमें पूरा विश्वास रक्खा जाता है। यहाँ "गुरु सोच" से गुरु-जनों से संबंध रखनेवाला शोक नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक तो शब्द गुरु-जनों को प्रकट नहीं करते और दूसरे उनके सम्मुख गात्र-स्पर्श आदि बहिरति-संबंधिनी भी कोई क्रियाएँ नहीं हो सकतीं। एतावता संकोच-भव भारी शोक का प्रयोजन लेना चाहिए। मृग-लोचनि में वाचक-धर्मोपमान-लुप्तोपमा है। यहाँ उपमेयमात्र कहा गया है। पूर्ण उपमा है मृग के लोचन-समान चंचल लोचन- वाली स्त्री, परंतु यहाँ धर्म (चंचलता), वाचक एवं उपमान का प्रकाश-कथन नहीं है। थोड़ा ही-सा गात छूने से क्रोध करने का भाव नायिका का मुग्धत्व प्रकट करता है । नायक अच्छे भाव से मुसकराकर उठ गया । यहाँ "सुभाय" एवं "मुसुकाय" शब्द जुगुप्सा को बचाते हैं, क्योंकि यदि नायक अप्रसन्न होकर उठता, तो बीभत्स-रस का संचार हो जाता, जो शृंगार का विरोधी है। नायक के उठ जाने के पीछे नायिका ने जितने कर्म किए हैं, उन सबसे मुग्धत्व प्रकट होता है। निशि खोने एवं प्रात पाने में रूढि लक्षणा हैं । न निशि अपने पास का कोई पदार्य है, जो खोया जा सके और न प्रात कोई पदार्थ है, जो मिल सके । इस प्रकार के कथन संसार में प्रचलित हैं, जिससे रूढ़ि लक्षणा हो जाती है । 'गोरो-गोरो मुख आजु ओरो-सो बिलानो जात' में गौणीसारोपा प्रयोजनवती लक्षणा एवं पूर्णोपमा-
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