भाषा २४४ "अरी, खरी, सटपट परी बिधु प्राधे" में भी जो शब्द-संगठन हुश्रा है, वह अत्यंत दृढ़ है। खाँड़ की रोटी के सभी टुकड़े मीठे होंगे। अतएव अपर दिए हुए दोहे चाहे पुप्पुर और कठोर किनारे ही क्यों न हों, परंतु उनकी मिठाई में किसी को संदेह न होना चाहिए। यद्यपि शर्माजी ने इन 'अंगूरों को चख लेने के बाद शेष सभी मीठे फलों को निमकौरी-सदृश कटु बतलाकर उन्हें न छूने की आज्ञा दी है, तो भी स्वादु-परिवर्तन रुचिरा होने के कारण जिह्वा विविध रसोपभोग के लिये सर्वदा समुद्यत रहती है। अतएव देव-सदृश साहित्य-सूद-संपादित स्वादीयसी सुधा-संभोग से वह कैसे विरत रह सकती है ? सुनिए- पीछे परबीन बीनै संग की सहेली, आगे भार-डर भूषन डगर डारै छोरि-छोरि ; मोरै मुख मोरनि, त्यों चौंकत चकोरनि, त्यों भौरनि की ओर भीरु देखै मुख मोरि-मोरि । एक कर आली-कर-ऊपर ही धरे, हरे-हरे पग धेरै, "देव' चलै चित चोरि-चोरि ; दूजे हाथ साथ लै सुनावति बचन , राज-हंसन चुनावति मुकुत-माल तोरि-तोरि । पीछे परबीनै, परबीन बीन, संग की सहेली, भार भूषन, डर डगर, सारै छोरि छोरि, मोरै मुख मोरनि, मोरनि चकोरनि, भौंरनि चौंकत चकोरनि, भौरनि भीरु, मुख मेरि-मोरि, ही हरे-हरे, धरे धरै, चलै चित चोरि-चोरि, हाथ साथ, सुनावति चुनावति, मुकुत-माल, तोरि-तोरि आदि में अनुप्रास का व्यास जैसा विकास-पूर्ण है, वैसा ही उसका न्यास भी अनायास वचन-विलास-वर्धक है। यों तो "जीभ निंबौरी क्यों लगै, बौरी ! चाखि अँगूर" की दुहाई देनेवालों से कुछ कहने
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