natr - . भूमिका को इस बात की शिकायत रहती है कि उनकी कविता में संस्कृत- शब्द व्यवहृत होते ही वे कर्कश कहे जाने लगते हैं, हालाँकि जब तक खास संस्कृत-भाषा में ही उनका व्यवहार होता है, तब तक उनमें कर्कशत्व प्रारोपित नहीं किया जाता । इसका निरूपण ऊपर कर दिया गया है । बजभाषा संस्कृत से मधुर है । उसमें आते ही तुलना-वश ब्रजभाषावाले उनको कर्कश ज़रूर कहेंगे । महाकवि केशवदास ने संस्कृत के शब्द बहुत व्यवहृत किए थे। उसमें जो शब्द मीलित थे और तुलना से कानों को नागवार मालूम होते थे, वे ब्रजभाषा के कवियों द्वारा श्रुति-कटु माने गए हैं। महाकवि श्रीपतिजी ने अपने 'काव्य-सरोज' ग्रंथ में खुले शब्दों में केशवदास की भाषा में श्रुति-कटु दोष बतलाया है। उनकी कविता प्रेत- काच्य के नाम से प्रसिद्ध है, यह सब लोग जानते हैं। ऐसी दशा में खड़ी बोलीवालों को यह नहीं समझना चाहिए कि कोई उसमें ईर्षा-वश कर्कशत्व का दोष आरोपित करता है । जब हमारे समा- लोचकों ने केशवदास तक की रिवायत नहीं की, तो खड़ी बोली- वालों को ही शिकायत क्यों है ? आशा है, खड़ी बोलीवाले उप- योगी प्रजभाषा-माधुर्य का सन्निवेश करेंगे। हमें सब प्रकार हिंदी की उन्नति करनी है। उपयोगी विषयों से हिंदी का भंडार भरना है । कविता में भी अभी उन्नति की जरूरत है। हिंदी कविता आज कल खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में ही होती है। कविता का मुख्य गुण भाव है और सहायक गुण शब्द-सौंदर्य । इस शब्द-सौंदर्य के अंतर्गत ही शब्द-माधुर्य है। हमें चाहिए कि सहायक गुण की सहायता से भाव-पूर्ण कविता करें। ब्रजभाषा में यह गुण सहज सुलभ है । अतएव उसमें कविता करनेवालों को भावोत्कृष्टता की ओर झुकना चाहिए । खड़ी
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