देव और विहारी णिक पद भी अनेक हैं । घनाक्षरी और दोहे में बहुत अंतर (२) नई लगन, कुल की सकुच; बिकल भई अकुलाय; दुहूँ और ऐची फिरैः फिरकी-लौ दिन जाय । विहारी मूरति जो मनमोहन की, मन मोहनी के, थिर है थिरकी-सी ; "देव” गृपाल को नाम सुने सियराति सुधा छतियाँ छिरकी-सी : नीके झरोखा द्वे भाँकि सकै नहि, नैनन लाज-घटा घिरको सी; पूरन प्रीति हिये हिरकी, खिरकी-खिरकीन फिरै फिरकी-सी। नायिका की दशा फिरकी के सदृश हो रही है। जिस प्रकार फिरकी निरंतर घूमती है, ठीक उसी प्रकार नायिका भी अस्थिर है । विहारी- लाल की नायिका को एक ओर 'नई लगन' घसीटती है, तो दूसरी ओर 'कुल की सकुच' । फिरकी के समान उसके दिन बीत रहे हैं। देवजी की नायिका के 'हिये' में भी 'पूरन प्रीति हिरकी है और नेत्रों में 'लाज-घटा' 'घिरकी' है । इसीलिये वह भी "खिरकी- खिरकीन फिरै फिरकी-सी" । देवजी ने 'लगन' के स्थान पर 'प्रीति' और 'सकुच के स्थान पर 'लजा' रक्खी है । हमारी राय में विहारी- लाल की 'नई लगन' देवजी की 'पूरन प्रीति से प्रकृष्ट है । 'नई लगन' में जो स्वभावतः अपनी ओर खींचने के भाव का स्पष्टीकरण है वह 'पूरन प्रीति' में वैसा स्पष्ट नहीं है । पर देवजी की 'लाज- घटा' 'कुल की सकुच' से कहीं समीचीन है ! इस 'लाज-घटा' में कुल-संकोच, गुरुजन-संकोच आदि सभी घिरे हुए हैं। यह बड़ा ही व्यापक शब्द है । फिर 'लाज' में प्रियतम-प्रीति, प्रेम-पूर्ण, स्वभा- वतः उत्पन्न, अनिर्वचनीय संकोच (झिझक) का जो भाव है, वह बाहरी दबाव के कारण, अतः कुल की कृत्रिम सकुच में, नहीं है
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