२३८ देव और विहारी नींबी उकसाय, नेक नैनन हॅसाय, हँसि, ससि-मुखी सकुचि सरोवर ते निकसी । सरोवर में स्नान करके, गीले वस्त्र पहने नायिका जल से निकल- कर तट की ओर जा रही है । यही बात दोहा और घनाक्षरी दोनों में वर्णित है। दोहे में स्नानानंतर शीतलता-सुख से नायिका बिहँस' रही है, परंतु जिन कारणों से उसने 'कुच-आँचर-बिच बाँह" रक्खी है, उन्हीं कारणों से वह 'सकुच' भी रही है । 'बिहँसति-सकुचति', 'कुच-आँचर- बिच', 'पट तट' में शब्द-चमत्कार भी अच्छा है । दोहे में सरोवर से नहाकर गीले कपड़े पहने हुई नायिका का चिन्न है। बरबस वह चित्र नेत्रों के सामने आ जाता है। पर नायिका कैसी है, इसका अंदाजा केवल इतना होता है कि वह युवती है, विहसित-वदना है और संकोचवती भी है । सौंदर्य-कल्पना का भार विहारीलाल पाठक की रुचि पर छोड़ देते हैं। देवजी अपनी प्रखर प्रतिभा के प्रताप से कल्पना-सरिता में गहरा गोता लगाते हैं। गौरांगी नायिका सामने आ जाती है। ऋतु, समय और शोभा के अनुकूल वह पीत रंग की ऐसी महीन साड़ी पहने हुए है, जो स्नानानंतर गोरे अंग में मिलकर रह जाती है। स्नान करते समय शरीर के कतिपय कृत्रिम श्रृंगार-शरीर में लगे हुए अंगराग धुलकर बह जाते हैं। इससे सौंदर्य में किसी प्रकार की कमी नहीं पा रही है । 'बेंदी' और 'बंदन' के विना भी शोभा विकसित हो रही है। छूटी हुई अलकावली में जल-बिंदु खूब ही झलक रहे हैं। नायिका पिकबैनी है । स्नान में ऊपर से लगाई हुई सुगंध के धुल जाने पर भी शरीर की सहज सुवास से आकृष्ट हो, कुंज के विकसित कुसुमों की गंध को त्यागकर अलि- पुंज नायिका के ऊपर गुंजार कर रहे हैं । भ्रमरों के इस उपद्रव से
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२३०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।