२६ देव और विहारी आक औ कनक-पात तुम जो चबात हो, तौ षटरस व्यंजन न केहूँ भाँति लटिगो। भूषन, बसन कीन्हो व्याल, गज-खाल को, तो सुबरन साल को न पैन्हिबो उलटिगो। . दास के दयाल हौ, सुरीति ही उचित तुम्हें ; लीन्ही जो कुरीति, तो तिहारो ठाट ठटिगो । छैकै जगदीश कीन्हो वाहन वृषभ को, तो __कहा शिव साहब गयंदन को घटिगो ? अंत में हम ब्रजभाषा-कविता की मधुरता का निर्णय,सहृदय के हृदय पर छोड़ इसकी प्रकृत माधुरी के कुछ उदाहरण नीचे देते हैं- पाँयनि-नूपुर मंजु बजै, कटि-किंकिनि मैं धुनि की मधुराई; साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई; माथे किरीट, बड़े हग चचल, मद हॅसी, मुखचद जुन्हाई जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रज-दूलह, देव सहाई । ब्रज-नवतरुनि-कदंब-मुकुटमनि श्यामा श्राजु बनी, तरल तिलक, ताटक गंड पर, नासा जलज-मनी । यों राजत कवरी-थित कच, कनक-कंज-बदनी, चिकुर-चंद्रकान-बीच परध बिधु मानहुँ प्रसत फनी । हित हरिवंश भाषा की इस मधुरता से यदि पाठक द्रवीभूत न हों, तो इसे कवि का दुर्भाग्य ही समझना चाहिए । कैसे छोटे-छोटे कोमल शब्दों की योजना है ? क्या मजाल कि कोई अक्षर भी व्यर्थ रक्खा गया हो ? भोलित शब्द कितने कम हैं ? सानुस्वार शब्द-माधुर्य को कैसा बढ़ा रहे हैं ? संस्कृत के क्रिष्ट शब्दों का प्रभाव कानों का कैसा उपकार कर रहा है ? खड़ी बोली की कविता के पक्षपातियों
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