२३२ देव और विहारी आनंदकारी दृश्य है । छंद, दशा और भाव का वैषम्य होते हुए भी नायक से नायिका की दशा विशेष देखने का प्रस्ताव समान है। चित्र को दोनों ओर से देखने की आवश्यकता है। एक ओर से उसे विहारीलाल देखते हैं, तो दूसरी ओर से देवजी उसकी उपेक्षा नहीं करते हैं। दोनों के वर्णन ध्यान से पढ़िए । देवजी कहते हैं- आवो भोट रावटी, झरोखा झाँकि देखौ "देव" देखिने को दाँव फेरि दूजे द्यौस नाहिने ; लहलहे अंग, रंग-महल के अंगन में ठाढ़ी वह बाल लाल, पगन उपाहने । लोने मुख-लचनि नचनि नैन-कोरन की , उरति न और ठौर सुरति सराहने । बाम कर बार, हार, अंचर सम्हारै, करै - कैयो फंद, कंदुक उछार कर दाहिने । दाहने हाथ से गेंद उछालते समय बाएँ हाथ से नायिका को बाल, माला और आँचल सँभालना पड़ रहा है एवं इसी कंदुक- क्रीड़ा के कारण सलोने मुख का झुकना एवं नेत्र-कोरकों का संतत नृत्य कितना मनोरम हो रहा है ! यह भाव कवि ने बड़े ही कौशल
- मोतीगण-गूथी, गोल, सुघर, छबि-जाल रेशमी मेलन पर,
ऊँची-नीची हो प्राण हरै, दुति-रूप-सुधा-रस झेलन पर, बिन देखे समझ नहीं यार, चित पार हो गई हेलन पर, • इस लालविहारी जानी की कुरबान गेंद की खेलन पर: सीतल । यह भाव भी ऊपर दिए देव के छंद की छाया है। सीतल-जैसे बड़े कवियों को देवजी के भाव अपनाने में लालायित देखकर पाठक देवजी की भावोत्कृष्टता का अंदाजा कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त यह भी सच्या है कि कवि खड़ी बोली में भी उत्तम कविता कर सकता है।