२२३ विरह-वर्णन बाँधने में देवजी ने अपनी प्रगाढ़ काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है । योगिनी के लिये उपयोगी सभी पदार्थों का छोटे-से नेत्र में आरोप कर ले जाना सरल काम नहीं है। बाघंबर, गुदड़ी, गेरुए वस्त्र, जल, धूम्र, अग्नि, स्फटिक-माला, सेल्ही (वस्त्र विशेष ) श्रादि सभी आवश्यक पदार्थों का आरोप क्रम से वरुणी (बीच में अंतर होने से सफ़ेद और काली जान पड़ती हैं बाघंबर में भी काले धब्बे रहते हैं ), पलक, नेत्रों के कोए (रुदन के कारण लाल हो रहे हैं), अश्रु-जल, भौहे, विरह, अश्र और नेत्रों में पड़े हुए लाल डोरों पर किया गया है। अखियाँ वियोगिनी योगिनी हैं। योग संयोग के लिये किया गया है। इसीलिये देव (इष्टदेव) से दर्शन देने की प्रार्थना है । विरहिणी दर्शन-संयोग में ही अपना अहोभाग्य मानती है। रोने से नेत्रों की दशा कैसी हो गई है, इसको नायिका की सखी ने बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में प्रकट किया है। यह छंद देव के काव्य-कला-कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण । विरह-निवेदन का प्रकृष्ट नमूना है। शृंगार रसांतर्गत शुद्ध परकाया। का पूर्वानुराग उद्वेग-दशा में झलक रहा है। सम-अभेदरूपक इसी का संकल्प-विकल्प-सा करता जान पड़ता है कि समता के लिये इसके समान अन्य उदाहरण पा सकेगा या नहीं। गौणी सारोपा लक्षणा भी स्पष्ट परिलक्षित है। एक अन्य रूपक में देवजी ने दोनों नेत्रों और सावन-भादों की समता दिखलाई है । निरंतर अश्रु-प्रवाह को लक्ष्य में रखकर यह रूपक भी देवजी ने परम मनोहर कहा है- कोयन-जोति चहूँ चपला , सुरचाप मु-भ्रूपचे, कजल कादौं ; तारे खुले न, घिरी बस्नी घन , नैन दोऊ भए सावन-भादौं ।
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