२२२ देव और विहारी मंजुल मंजरी पजरी-सी है, मनोज के ओज सम्हारत चीर न ; मुंख न प्यास, न नींद परै, परी प्रेम-अजीरन के जुर जीरन । "देव" घरी पल जाति धुरी अँसुवान के नीर, उसास-समीरन ; अाहन-जाति अहीर अहे, तुम्हें कान्ह, कहा कहौं काहु कि पीरन । देव मूर्छा, मरण, अभिलाष एवं प्रलाप-दशाओं के प्रत्युत्कृष्ट उदाहरण होते हुए भी स्थल-संकोच से उनका वर्णन अब यहाँ नहीं किया जायगा। ५-विरह-निवेदन बाल-बेलि सूखी सुखद यह रूखी रुख-घाम; फेरि डहडही कीजिए सरस सींचि घनस्याम ! विहारी बाला और बल्ली का कितना मनोहर रूपक है ! घनश्याम का श्लिष्ट प्रयोग कैसा फबता है ! कुम्हलाई हुई लता पर ईषत् जल पड़ने से वह जैसे लहलहा उठती है, वैसे ही विकल विरहिणी का घनश्याम के दर्शन से सब दुःख दूर हो जायगा । सखी यह बात नायक से कैसी मार्मिकता के साथ कहती है ! विहारीलाल का विरह-निवेदन कितना समीचीन है ! बरुनी-बुधबर मैं गूदरी पलक दोऊ, ____ कोए राते बसन भगोहें मेष रखियाँ ; बूडी जल ही मैं, दिन-जामिनि हूँ जागैं, भौंहें धूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ । असुवा फटिक-माल, लाल डोरी-सेल्ही पैन्हि, भई हैं अकेली तजि चेली संग-सखियाँ; दीजिए दरस देव, कीजिए संजोगिनि, ये , जोगिाने वै बैठी हैं बियोगिनि की अखियाँ । वियोगिनी के नेत्रों (अखियाँ ) और योगिनी का अपर्व रूपक
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