२१७ विरह-वर्णन है-मैं श्याम वर्ण ही की सब वस्तुओं का व्यवहार करती हूँ। स्नेह, चोया, मखतूल, मृग-मद और श्रृंगार-रस की मूर्ति एवं काजल इन सबका कवि-संप्रदाय से श्याम रंग माना गया है । नायिका कहती है कि यदि मैं सिर में स्नेह लगाती हूँ, तो यह सोचकर कि इसका वर्ण श्यामसुंदर के वर्ष के अनुरूप है। इसी प्रकार अन्र वस्तुत्रों को भी समझना चाहिए । श्यामसुंदर के रूप के संबंध में उसका कहना है कि मैंने श्यामसुंदर के श्यामल स्वरूप को ही नेत्रों का कजल कर रक्खा है। यह वचन प्रेम-गर्विता के हैं। यहाँ सम-अभेद-रूपक का प्रत्यक्ष चमत्कार है । दोहे का अर्थ स्पष्ट है। श्याम वर्ण के प्रति देवजी ने जो तन्मयता का भाव दिखलाया है, वही प्रशंसनीय है। "उद्वेग-वियोगावस्था में व्याकुल हो चित्त के निराश्रित होने को उद्धेग कहते हैं।" (रसवाटिका, पृष्ठ ८३) हौं ही बौरी बिरह-बस, कै बौरो सब गाँउ ? कहा जानि ये कहत हैं ससिहि सीतकर नाँउ ? विहारी भेष भए विष, भावै न भूषन, भूख न भोजन की कछु ईछी ; "देवजू" देखे करै बधु सो मधु, दुधु, सुधा, दधि, माखन छीछी। चंदन तो चितयो नहिं जात, चुमी चित माँहिं चितौनि तिरीकी फूल ज्यों सूल, सिला-सम सेज, बिछौननि-बीच बिछी मनौ बीछी । घोर लमै घर-बाहर हूँ डर, चूत पलास जरे, प्रजरे-से ; रंगित भीतिनु मोति लगै लखि, रग-मही रन-रंग ढरे-से । धूम-घटागर धूपनि की निकसैं नव जालनि ब्याल भरे-से , जे गिरि-कंदर-झे मुनि-मंदिर. अाजु अहो ! उजरे, उजरे से,
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