पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२०८

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२१६ देव और विहारी चंचल चितौन चित ' चुभी चित-चोरवारी, मारवारी बसरि, सु-केसरि की आड़ वह ; गोरे-गोरे गोलनि की, हॅसि-हॅसि बालनि की, कोमल कपोलन की जी मैं गड़ी गाड़ वह । देवजी ने स्तंभ-स्मरण का बड़ा ही रोमांचकारी वर्णन किया है। स्तंभ-स्मरण और योग की अच्छी समता दिसलाई है। योगासन पर बैठी हुई योगिनी का चित्र खींच दिया है। कैसा विकलकारी वियोग है ! पढ़िए- अग डुलै न उतग करै, उर ध्यान धरै, बिरह-ज्वर बाधति; नासिका-अग्र की ओर दिए अध-मुद्रित लोचन को रस माधति । श्रासन बॉधि उसास भरै; अब राधिका "देव" कहा अवराधति ? भूलि गो भोग, कहै लखि लोग-बियोग किधौं यह योगहि साधति ? "गुण-कथन-वियोगावस्था में प्रिय के गुणानुवाद करने को गुण-कथन कहते हैं।" (रसवाटिका, पृष्ठ ८२) भृकुटी मटकनि, पीत पट, चटक लटकती चाल; चल चख-चितवनि चोरि चित लिया बिहारीलाल । विहारी देवजी ने गुण-कथन को भी कई प्रकार का माना है । उनके हर्ष- गुण-कथन का उदाहरण लीजिए- "देव" मैं सीस बसायों सनेह कमाल मृगम्मद-बिंदु कै राख्यो । कंचुकी मैं चुपरथो करि चोवा, लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो। लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवंत सिँगारु कै चाख्यो ; साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो । श्यामसुंदर के श्याम वर्ण पर सुंदरी ऐसी रीझी है कि कहती