विरह-वर्णन ४-दशाएँ "चिंता-वियोगावस्था में चित्त-शांति के उपाय वा संयोग के विचार से चिंता कहते हैं।" ( रसवाटिका, पृष्ठ ८२) सोबत सपने स्यामघन हिलि-मिलि हरत बियोग ; तब ही टरि कित₹ गई नींदौ, नींदन-जोग। विहारी खोरि लौं खेलन श्रावती ये न, तौ श्रालिन के मत में परती क्यों ? "देव" गोपालहिं देखती ये न, तो या बिरहानल मैं बरती क्यों ? बापुरी, मजुल अॉब की बालि सु भाल-सी है उर मैं अरती क्यों ? कोमल कूकि के कैलिया कूर करेजन की किरचें करती क्यों ? देवजी ने यह छंद रस-विलास में "विकल्प-चिंता" के उदाहरण में रक्खा है। दोनों छंदों के भाव स्पष्ट हैं। इससे विशेष टीका करनी व्यर्थ है। "स्मरण-वियोगावस्था में प्रिय संयोग-जात पूर्वानुभुक्त वस्तु के ज्ञान होने को स्मरण कहते हैं ।" (रसवाटिका, पृष्ठ ८२) देवजी ने आठ सात्त्विक अनुभावों को लेकर स्वेद..स्तंभ..रोमांच, स्वर-भंग, कंप, वैवर्य, प्रश्न एवं प्रलय स्मरण-नामक पाठ स्मरणों का रस-विलास में सोदाहरण वर्णन किया है। सोवत, जागत, सपन-बस, रिस, रस, चैन, कुचैन ; मुरति स्याम घन की सुरति बिपरेहूँ बिसरै न । विहारी घाँघरो धनरो, लाँबी लटें लटे लाँक पर, कॉकरेजी सारी, खुली, अधखुली टाँड़ वह ; गोरी गजमोनी दिन-दूनी दुति होनी “देव", लागति सलोनी । गुरुलोगन के लाड़ वह ।
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