२०५ देव-विहारी तथा दास चाँदनी बिचित्र लखि चाँदनी-बिछौना पर, दूरिकै चॅदोवन को विलसै अकेली बाल ; "दास” आसपास बहु मोतिन बिराजै धरे, पन्ना, पोखराज, मोती, मानिक, पदिक, लाल ; चद-प्रतिबिंब ते न न्यारो होत मुख, ओ न तारे प्रतिबिंबन ते न्यारो होत नग-जाल । (१) उपर्युक्न पहले दो छंदों में देव और दास ने एक ही घटना का चित्रण किया है । देव के छंद में राधिकाजी ने तो राज- पौरिया का रूप धारण किया है, पर दास के छंद में श्रीराधा और कृष्ण दोनों ही ने रूप-परिवर्तन किया है । इतने अंतर को छोड़कर दोनों छंदों में अद्भुत सादृश्य है। (२,३) दो तथा तीन नंबरों के छंद बिलकुल समान हैं। दो नंबर के छंदों में जो भाव भरा है. उसे इन दोनों कवियों के पूर्ववर्ती केशव ने भी कहा है। (४) इन दोनों छंदों का सादृश्य इतना स्पष्ट है कि इस पर विशेष लिखना व्यर्थ है। (५) देव और दास का वर्णन बिलकुल एक है । चाहे उसे 'लट- कन का मोती' कहिए अथवा 'नथुनी का मोती'। देवजी उसे नट कह- कर उसकी क्रियाशीलता-देखते-देखते बाने बदलने के कार्य की ओर भी पाठकों का ध्यान दिलाते हैं। दासजी उसे केवल बहु- रूपिया बतलाते हैं। (६) इन दोनों छंदों का भाव भी बिलकुल एक ही है देव की गोपी का 'हियरा' हरि के हाथ बिक गया है, तो दासजी की वृषभानुलली श्राप ही श्राप बिक गई हैं। (७) इन दोनों छंदों में भी एक ही दृश्य खचित है। देव ने
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