देव और विहारी की देशी भाषाओं में भी दो-एक ऐसी हैं, जिनकी मधुरता लोगों को हठात् उसमें कविता करने को विवश करती है। यहाँ तक जो बातें लिखी गई हैं, वे प्रायः प्रत्येक भाषा के शब्द-माधुर्य के विषय में कहीं जा सकती हैं। अब यहाँ हिंदी-कविता की भाषा में जो मधुरता है, उस पर भी विचार किया जायगा। - हिंदी-कविता का प्रारंभ जिस भाषा में हुआ, वह चंद की कविता पढ़ने से जान पड़ती है। पृथ्वीराज रासो का अध्ययन हमें प्राकृत को हिंदी से अलग होते दिखलाता है । इसके बाद ब्रजभाषा का प्रभाव बढ़ा । प्राकृत की सुकुमारता और मधुरता ब्रजभाषा के बॉटे प्रड़ी थी, बरन् इसमें उसका विकास उससे भी बढ़कर हुश्रा । ऐसी भाषा कविता के सर्वथा उपयुक्त होती है, यह ऊपर प्रतिपादित हो चुका है। निदान हिंदी-कविता का वैभव ब्रजभाषा द्वारा बढ़ता ही गया। समय और आश्रयदाताओं का प्रभाव भी इस ब्रजभाषा- कविता का कारण माना जा सकता है। पर सबसे बड़ा श्राकर्षण भाषा की मधुरता का था और है। __"सॉकरी गली में माय काँकरी गड़त हैं" वाली कथा भले ही झूठी हो, पर यह बात प्रत्यक्ष ही है कि फारसी के कवियों तक ने ब्रजभाषा को सराहा और उसमें कविता करने में अपना अहोभाग्य माना । ब्रजभाषा मे मुसलमानों के कविता करने का क्या कारण था? अवश्य ही भाषा-माधुर्य ने उन्हें भी ब्रजभाषा अपनाने पर विवश किया। सौ से ऊपर मुसलमान-कवियों ने इस भाषा में कावेता की है । संस्कृत के भी बड़े-बड़े पंडितों ने संस्कृत तक का आश्रय छोड़ा और हिंदी में, इसी गुण की बदौलत, कविता की। उधर बड़े-बड़े योरपवासियों ने भी इसी कारण व्रजभाषा को माना। उर्दू और ब्रजभाषा में से किसमें अधिक मधुरता है, इसका निर्णय भली भाँति हो चुका है । नतंकी के मुंह से बीसों उर्दू में कही हुई
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