देव और विहारी नायक का हृदय पत्थर का बना हुआ है। नायिका के नेत्र तीक्ष्ण बाण हैं। बस, जब-जब ये तीक्ष्ण शर हृदय-प्रस्तर पर लगते हैं, तब-तब विरहाग्नि पैदा हो जाती है। दोनों कवियों की निगाह के सामने पत्थर से अग्नि निकलने का दृश्य मौजूद है। उक्ति की रमणीयता विरहाग्नि की उद्दीप्ति में है। (५) प्रियतम की उँगलियों में महावर की लाली देखकर नायिका कुपित होती है । उसका ख़याल है कि महावर सपत्नी के पैरों से छूटकर नायक की उँगलियों में लग गया है। कोप का प्रादुर्भाव होने के लिये सपत्नी का सामीप्य यों ही पर्याप्त था। फिर कृष्णचंद्र में सपत्नी के सन्निकट होने के प्रमाण भी मिले । इसने आहुति में घी का काम किया। पर नायक की उँगलियों में सपत्नी के पैरों का जावक लगा देखकर तो कोप की अग्नि धाँय- धाँय जल उठी । स्त्रियों में सपत्नी के प्रति स्वभावतः ईर्षा होती है। दोनों कवियों ने प्रियतम की उँगलियों में महावर लगा दिखलाकर इस ईर्षा का विकास करा दिया है। दोनों कवियों की उक्ति में इसी रसीले कोप की रमणीयता है। (६) भक्त मोक्ष का प्रार्थी है । ईश्वर के प्रति उसकी उक्ति है कि जैसे अनेक अधम पापियों को आपने मुक्त कर दिया है, वैसे ही मुझे भी मुक्त कर दीजिए, पर यदि मेरी मोक्ष (छुटकारा) आपको स्वीकार नहीं है --आप मुझे बंधन में ही रखना चाहते हैं- तो कृपया अपने गुणों ( रस्सी तथा गुण) से ही खूब कसकर बाँध रखिए । विहारी की उक्ति में इसी 'गुण' शब्द केश्लिष्ट प्रयोग में रमणीयता की बहिया आ गई है। दासजी की भी ईश्वर से कुछ ऐसी ही प्रार्थना है, परंतु बंधनावस्था में वह चाहते हैं कि उन- जैसे दीन का बंधन निर्गुण ( रस्सी के प्रयोग के विना, निर्गुण) भाव से होना चाहिए।
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