देव-विहारी तथा दास mergentinaprem-AVAsiamwintendisuniloyonelamaalki (१) श्रीकृष्ण ने गोवर्धन-धारण किया है । घोर जल-वर्षण से विकल ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे आश्रित हुए हैं । वहीं श्रीराधिकाजी भी मौजूद हैं । श्रीकृष्णचंद्रजी का राधिकाजी से साक्षात्कार हो जाता है। ठीक उसके बाद ही लोग देखते हैं कि कृष्णचंद्र का हाथ हिल रहा है तथा हाथ के हिलने से पर्वत भी। ब्रजवासी इस अवस्था को देखकर विकल हो रहे हैं । पर श्रीकृष्णचंद्र में यह कमजोरी पर्वत के भार के कारण नहीं आई है, यह कंप तो दूसरे ही प्रकार का है। बड़े भारी पर्वत के बोझ से जो हाथ अचल था, वह किशोरी के दर्शनमात्र से हिल गया । उनि की रमणीयता इसी बात में है। दोनों ही कवियों ने इसी भाव का वर्णन किया है। - (२) नायिका स्वयं या किसी की सलाह से रवि-वंदना करती है। पर यह कोरा भक्त का प्रदर्शन नहीं है । इस प्रकार सूर्यदेव को हाथ जोड़ने में दो मतलब हैं । दोनों उक्लियों का सारा चमत्कार इसी बात में है कि लोग तो समझे कि सूर्यदेव की अाराधना हो रही है और नायक समझे कि हमारा सौभाग्य चमक उठा है। (३) विना बादलों के ही केका की ध्वनि सुनाई दे रही है, क्या बात है ? कहीं फूल नहीं दिखलाई पड़ते, तो भी भ्रमर चारों ओर गुंजार करने लगे हैं, क्या मामला है ? जान पड़ता है, इधर धन-श्याम (कृष्ण, मेघ) का शुभागमन हुआ है, इसी से मोर बोल उठे हैं और राधिकाजी भी, जान पड़ता है, सैर को निकली हैं। उनके शरीर की प्रम-गंधि से प्राकृष्ट श्रमर भी इधर दौड़ पड़े हैं। (४) नेत्रों को कमल के समान कहना ठीक नहीं, वे पाषाण के समान हैं । तभी तो उनका संवर्ष होते न होते विरहाग्नि पैदा हो जाती है। विहारी की उक्ति का सार यही है। दासजी की राय में
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