११२ देव और विहारी जोहे जाहि चाँदनी की लागति भली न छबि, . चंपक-गुलाब-सोनजूही-जोतिवारी है। जामते, रसाल लाल करना, कदब ते वै, बढी है नबेली, सुनु, केतकी सुधारी है। कहै 'दास' देखौ यह तपान विषादित की, कैसी बिधि जाति दोपहरिया नेवारी है; प्रफुलित कीजिए बरसि घनस्याम प्यारे, जाति कुँमिलानि बृषभानजू की बारी है। दास यहाँ पर हम दासजी के यही १३ छंद देना उचित समझते हैं। हमारे पास दासजी के और भी बहुत-से छंद मौजूद हैं, जिनमें उनके और बिहारी के भावों में स्पष्ट सादृश्य विद्यमान है। पर उनको यहाँ देना हम इसलिये उचित नहीं समझते कि उनमें दासजी की प्रतिभा बहुत ही साधारण रूप में प्रकट हुई है। विहारीलाल के दोहों के सामने दासजी के साधारण दोहे रखने से पाठकगण भ्रम में पड़ सकते हैं, इससे दासजी के साथ अन्याय हो सकता है। अपनी रुचि और पहुँच के अनुसार हमने ऊपर दास-कृत जिन छंदों को उद्धत किया है, उन्हें अच्छा ही समझकर किया है, जिसमें दासजी के अनुकूल समालोचकों को हमसे किसी प्रकार की शिकायत करने का मौका न मिले । उल्लिखित छंद अधिकतर 'रस-सारांश', 'काव्य-निर्णय' तथा 'शृंगार-निर्णय' से संगृहीत किए गए हैं। अब हम उपर्युक्त तेरहों उक्लियों की रमणीयता के रहस्य पर भी संक्षेप में कुछ प्रकाश डाल देना चाहते हैं। ऐसा करने से हमारा अभिप्राय यह है कि पाठक भली भांति समझ जायँ कि उक्लियों में चमत्कार की बातें कौन-सी हैं ? क्रमशः प्रत्येक उक्ति पर विचार कीजिए-
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