देव और विहारी लाल तिहारे दृगन की हाल कही नहिं जाय ; सावधान- रहिए तऊ चित-बित लेत चुराय । दास अब दोहों के अतिरिक्त दासजी के कुछ उन लंबे छंदों का भी उल्लेख किया जाता है, जिनमें विहारीलाल के दोहों का भाव झल- कता है। पहले हम वही छंद उद्धत करेंगे जिसका ज़िक्र पं० पद्मसिंह शर्मा ने अपने संजीवन-भाष्य के प्रथम खंड में पृष्ट १५८ पर किया है। उनकी राय में उस छंद में जो भाव भरा हुआ है वह विहारीलाल के कई दोहों से संकलित किया गया है । उक्त छंद और दोहे नीचे दिए जाते हैं- (१०) सीरे जतननि सिसिर रितु, सहि बिरहिनि तन-ताप ; बसिबे को ग्रीषम दिननि, परथो परोसिनि पाप । बाड़े दै अाले बसन, जाड़े हूँ की राति ; साहस ककै सनेह-बस, सखी सबै ढिंग जाति । औंधाई सांसी सुलखि, बिरह बरति बिललाति : बीचहि सूखि गुलाब गो, छींटौ छुई न गात । जिहि निदाघ-दुपहर रहै, गई माह की राति ; तिहि उसीर की रावटी, खरी श्रावटी जाति । विहारी एरे निरदई दई दरस तो देरे वह , ऐसी भई तेरे वा बिरह-वाल जागिकै; दास श्रास-पास पुर-नगर के बासी उत , माह हू को जानत निदाघ रह्यौ लागिकै ; लै-लै सारे जतन भिगाए तन ईठि कोऊ , नीठि ढिंग जावै सोऊ श्रावै फिरि भागिकै;
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